आज भारत में हिन्दू समाज को जाति, क्षेत्र, भाषा और द्रविड़ पहचान के नाम पर बाँटने का प्रयास किया जा रहा है-अशोक बालियान,चेयरमैन,पीजेंट वेलफेयर एसोसिएशन
आज भारत में हिन्दू समाज को जाति, क्षेत्र, भाषा और द्रविड़ पहचान के नाम पर बाँटने का प्रयास किया जा रहा है। इस प्रवृत्ति को पहले मुग़ल शासकों ने प्रोत्साहित किया था और बाद में अंग्रेजों ने अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति से इसे और गहरा कर दिया, जबकि वास्तविकता यह है कि तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, मराठी, हिंदी, बंगाली, गुजराती, पंजाबी आदि सभी भाषाएँ भारतीय भाषाएँ हैं और इनकी जड़ें वैदिक संस्कृति से जुड़ी हैं।
दलित समाज को भी हिन्दू समाज से अलग दिखाने का सुनियोजित प्रयास किया जा रहा है। शिक्षा संस्थानों में 'सवर्ण-विरोधी विमर्श' को प्रोत्साहन देकर नई पीढ़ी को अपनी परम्परा से काटा जा रहा है, जबकि महर्षि वाल्मीकि जैसे महापुरुषों ने रामायण की रचना कर सम्पूर्ण हिन्दू समाज को मार्गदर्शन प्रदान किया।
जातिगत उन्माद को सामाजिक न्याय के आवरण में परोसा जा रहा है, जबकि उसका वास्तविक उद्देश्य हिन्दू समाज की एकता को नष्ट करना है।आज हर जाति के संगठन खड़े हो गए हैं, जिनमें से कुछ राजनीतिक स्वार्थवश हिन्दू समाज को ही बाँटने का कार्य कर रहे हैं। यह हमारी एकता के लिए गंभीर खतरा है।
ऐसे समय में हिन्दू समाज के लिए एक सर्वमान्य ‘सनातन धर्म के सर्वोच्च धर्माचार्य’ की आवश्यकता है, ताकि व्रत-त्योहार, शास्त्रीय मान्यताओं तथा जाति, क्षेत्र, भाषा और द्रविड़ पहचान के नाम पर फैलाई गई भ्रांतियों को दूर कर हिन्दू समाज में एकता और स्पष्टता स्थापित की जा सके।
यदि “सनातन धर्म के सर्वोच्च धर्माचार्य” की नियुक्ति होती है, तो वे न केवल व्रत-त्योहारों और धार्मिक परंपराओं की एकरूपता सुनिश्चित करेंगे, बल्कि समाज को बाँटने वाले मुद्दों—जैसे जाति, क्षेत्र, भाषा और तथाकथित द्रविड़ पहचान—पर भी स्पष्ट और शास्त्रसम्मत राय देंगे। उनकी बात को पूरा हिन्दू समाज सम्मानपूर्वक सुनेगा, क्योंकि वे किसी दल या जाति विशेष के नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सनातन धर्म के प्रतिनिधि होंगे। इस प्रकार उनकी भूमिका हिन्दू समाज की एकता को मजबूत करने और भ्रामक विचारधाराओं को समाप्त करने में निर्णायक होगी। यह नियुक्ति श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या के भव्य मंदिर में या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुख्यालय के मंदिर में हो सकती है, जिससे सनातन धर्म और राष्ट्रवाद के आदर्शों को सशक्त आधार मिलेगा।
उत्तर भारत और दक्षिण भारत को बाँटने के लिए अंग्रेजों ने ‘आर्य बनाम द्रविड़’ का सिद्धांत गढ़कर हिन्दी, संस्कृत और उत्तर भारतीय परंपराओं को खलनायक बनाया गया है। जबकि वास्तव में आर्य और द्रविड़ अलग नस्लें नहीं, बल्कि सनातन संस्कृति की विविध शाखाएँ हैं। अयोध्या के राम और दक्षिण का रामसेतु, भारत की अखंड सांस्कृतिक एकता के साक्षी हैं।
बंगाल और उत्तर पूर्व भारत में ‘अलग सांस्कृतिक पहचान’ के नाम पर भारत की सामूहिक राष्ट्रीय चेतना को खंडित करने के प्रयास निरंतर चल रहे हैं। यह सब राष्ट्रभक्ति की भावना को सीमित कर, उसे स्थानीय राजनीति में समेटने का षड्यंत्र है। इस्लामी और ईसाई प्रचार संगठनों ने पहचान की राजनीति को अपना माध्यम बना लिया है। कन्वर्जन अब केवल धर्म परिवर्तन नहीं, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय निष्ठा परिवर्तन का उपकरण बन चुका है। यह पूरी वैचारिक संरचना कुछ मीडिया, NGO नेटवर्क और विश्वविद्यालयों के सहयोग से संचालित हो रही है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दू समाज जाति, भाषा और क्षेत्रीय पहचान के नाम पर बँटने के बजाय अपनी साझा आस्था और सनातन संस्कृति को पहचाने। तभी सनातन धर्म विभाजन से मुक्त होकर हिन्दू समाज की एकता और पहचान को और अधिक सशक्त कर सकेगा।
भारत में आज युवाओं पर 'लिव-इन रिलेशनशिप' जैसे आधुनिक विचार संस्कृति और परंपरा के नाम पर थोपे जा रहे हैं, जिससे पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों में असंतुलन पैदा होने का खतरा है। गैर-जातियों व गैर धर्म में विवाह होने से पारंपरिक विवाह संस्कार अपना महत्व खो रहे हैं।
एक ओर ‘ब्राह्मणवाद’ के विरुद्ध आंदोलन, दूसरी ओर ‘आर्य-द्रविड़’ संघर्ष, कहीं ‘मनुवाद’ के विरोध में ग्रंथों की निंदा, तो कहीं ‘पुरुष-सत्ता’ के विरोध में परिवार संस्था का विघटन—यह सब सुनियोजित वैचारिक हमले हैं। इस संकट की घड़ी में भारत को राष्ट्रभक्ति के वैदिक भाव से प्रेरित नवचेतना की आवश्यकता है।
भारत में जाति पूरी तरह समाप्त होना संभव नहीं है, क्योंकि यह सामाजिक पहचान और परंपरा का हिस्सा बन चुकी है। लेकिन आवश्यक है कि सनातन धर्म को जातियों में बाँटकर उसका नुकसान न किया जाए, बल्कि सभी जातियाँ एकजुट होकर सनातन धर्म और संस्कृति की रक्षा करें। इसी हेतु ‘सनातन धर्म के सर्वोच्च धर्माचार्य’ की नियुक्ति अति आवश्यक है।
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