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शनिवार, 24 अक्तूबर 2020

विजय दशमी पूजन के शुभ मुहूर्त


 


मुजफ्फरनगर । कोरोना काल में इस बार रामलीलाओं के आयोजन कम हुए। इसी तरह विजय दशमी के आयोजन भी बस परंपरा निभाने के लिए होंगे। अलबत्ता घरों में पूजा अर्चना धूमधाम से होगी। 


 विजय दशमी 25 अक्टूबर को मनाई जाएगी । इस साल मलमास (अधिकमास) लगने की वजह से नवरात्रि और दशहरा पर्व एक महीने की देरी से शुरु हो रहे हैं। इस बार नवरात्रि 17 अक्टूबर से शुरू हुए। 25 अक्टूबर को विजय दशमी होगी। 


दशहरे के दिन महिषासुर मर्दिनी मां दुर्गा और भगवान राम की पूजा करनी चाहिए। इससे सम्पूर्ण बाधाओं का नाश होगा और जीवन में विजय श्री प्राप्त होगी। इस दिन अस्त्र-शस्त्र की पूजा करना बड़ा फायदेमंद होता है। दशहरे के दिन शस्त्रों की पूजा होता है, इस दिन सनातन परंपरा में शस्त्र और शास्त्र दोनों का खास महत्व है। शास्त्र की रक्षा और आत्मरक्षा के लिए धर्मसम्म्त तरीके से शस्त्र का प्रयोग होता है। 


 


शुभ मुहूर्त:


दशमी तिथि प्रारंभ - 25 अक्टूबर को सुबह 7 बजकर 41 मिनट से


विजय मुहूर्त - दोपहर 01 बजकर 55 मिनट से 02 बजकर 40 तक


अपराह्न पूजा मुहूर्त - 01 बजकर 11 मिनट से 03 बजकर 24 मिनट तक


दशमी तिथि 26 अक्टूबर को सुबह 8 बजकर 59 मिनट तक रहेगी


रामायण की इन चौपाइयों में सुख समृद्धि और हर संकट का समाधान

हर कार्य में सफलता हेतु लाभकारी हैं रामायण की अद्भुत चौपाइयां 


 


रामायण की चोपाई जिनके जाप के माध्यम से जीवन में सफलता मिलती है| इन चोपाई का जीवन में प्रयोग करने से प्रभु श्री राम जी और श्री बालाजी सरकार आप के जीवन को सुख मय बना देगे !!


 


👉🏻पढ़ाई या किसी भी परीक्षा में कामयाबी के लिए


 जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥


 मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥


 


👉🏻रक्षा के लिए


मामभिरक्षक रघुकुल नायक !


घृत वर चाप रुचिर कर सायक !!


 


👉🏻विपत्ति दूर करने के लीए


राजिव नयन धरे धनु सायक !


भक्त विपत्ति भंजन सुखदायक !!


 


👉🏻सहायता के लिए


मोरे हित हरि सम नहि कोऊ !


एहि अवसर सहाय सोई होऊ !!


 


👉🏻सब काम बनाने के लिए


बंदौ बाल रुप सोई रामू !!


सब सिधि सुलभ जपत जोहि नामू !!


 


👉🏻संकट से बचने के लिए


दीन दयालु विरद संभारी !!


हरहु नाथ मम संकट भारी !!


 


👉🏻विघ्न विनाश के लिए


सकल विघ्न व्यापहि नहिं तेही !!


राम सुकृपा बिलोकहि जेहि !


 


👉🏻रोग विनाश के लिए


राम कृपा नाशहिं सव रोगा !


जो यहि भाँति बनहिं संयोगा !!


 


👉🏻ज्वर ताप दूर करने के लिए


दैहिक दैविक भोतिक तापा !


राम राज्य नहि काहुहि व्यापा !!


 


👉🏻दुःख नाश के लिए


राम भक्ति मणि उस बस जाके !


दुःख लवलेस न सपनेहु ताके ! 


 


👉🏻खोई चीज पाने के लिए


गई बहोरि गरीब नेवाजू !


सरल सबल साहिब रघुराजू !!


 


👉🏻घर में सुख लाने के लिए


जै सकाम नर सुनहि जे गावहि !


सुख सम्पत्ति नाना विधि पावहिं !!


 


👉🏻सुधार करने के लिए


मोहि सुधारहि सोई सब भाँती !


जासु कृपा नहि कृपा अघाती !!


 


👉🏻विद्या पाने के लिए


गुरू गृह पढन गए रघुराई !


अल्प काल विधा सब आई !!


 


👉🏻निर्मल बुध्दि के लिए


ताके युग पदं कमल मनाऊँ !!


जासु कृपा निर्मल मति पाऊँ !!


 


 


👉🏻सुख प्रप्ति के लिए


अनुजन संयुत भोजन करहीं !


देखि सकल जननी सुख भरहीं !!


 


👉🏻भाई का प्रेम पाने के लिए


सेवाहिं सानुकूल सब भाई !


राम चरण रति अति अधिकाई !!


 


👉🏻बैर दूर करने के लिए


बैर न कर काहू सन कोई !


राम प्रताप विषमता खोई !!


 


👉🏻मेल कराने के लिए


गरल सुधा रिपु करहिं मिलाई !


गोपद सिंधु अनल सितलाई !!


 


👉🏻शत्रु नाश के लिए


जाके सुमिरन ते रिपु नासा !


नाम शत्रुघ्न वेद प्रकाशा !!


 


👉🏻रोजगार पाने के लिए


विश्व भरण पोषण करि जोई !


ताकर नाम भरत अस होई !!


 


👉🏻इच्छा पूरी करने के लिए


राम सदा सेवक रूचि राखी !


वेद पुराण साधु सुर साखी !!


 


👉🏻पाप विनाश के लिए


पाफि जाकर नाम सुमिरहीं !


अति अपार भव भवसागर तरहीं !!


 


👉🏻अल्प मृत्यु न होने के लिए


अल्प मृत्यु नहिं कबजिहूँ पीरा !


सब सुन्दर सब निरूज शरीरा !!


 


👉🏻दरिद्रता दूर के लिए


नहिं दरिद्र कोऊ दुःखी न दीना !


नहिं कोऊ अबुध न लक्षण हीना !!


 


👉🏻शोक दूर करने के लिए


नयन बन्त रघुपतहिं बिलोकी !


आए जन्म फल होहिं विशोकी !!


 


👉🏻विनती भगवान के चरणो में


मोरे तुम प्रभु गुरू पितु माता !


जाऊँ कहाँ तजि पद जल जाता !!


 


👉🏻अर्जी देने के लिए


कहाँ वचन सब आरत हेतु !


रहत न आरत के चित चेतू !!


 


👉🏻मुकदमा जीतने के लिये


“पवन तनय बल पवन समाना। 


बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।


 


👉🏻शत्रु नाश के लिए:- 


जाके सुमिरन ते रिपु नासा ! 


नाम शत्रुघ्न वेद प्रकाशा !!


 


पं अक्षय शर्मा ----- ✍️🌹


शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

सब प्रकार की सिद्धि देती हैं माँ सिद्धिदात्री


श्री दुर्गा का नवम रूप माता श्री सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। भगवान शिव ने भी सिद्धिदात्री देवी की कृपा से ये अनेको सिद्धियां प्राप्त की थीं। सिद्धिदात्री देवी की कृपा से ही शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अर्द्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए।


इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बाईं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प ले कर सुशोभित है। इसलिए इन्हें सिद्धिदात्री कहा जाता है। अष्ट सिद्धियों से सुशोभित अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व सिद्धिदात्री की कृपा से मनुष्य सभी प्रकार की सिद्धिया प्राप्त कर मोक्ष पाने मे सफल होता है।


माता अपने भक्तों पर तुरंत प्रसन्न होती है और अपने भक्तों को संसार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कराती है। नवरात्री के नवें दिन भक्तों को अपना सारा ध्यान निर्वाण चक्र की ओर लगाना चाहिए। यह चक्र हमारे कपाल के मध्य में स्थित होता है। ऐसा करने से भक्तों को माता सिद्धिदात्री की कृपा से उनके निर्वाण चक्र में उपस्थित शक्ति स्वतः ही प्राप्त हो जाती है।


नौवें दिन सिद्धिदात्री को मौसमी फल, हलवा, पूड़ी, काले चने, खीर और नारियल का भोग लगाया जाता है। नवमी के दिन पूजा करते समय बैंगनी या जामुनी रंग पहनना शुभ रहता है। यह रंग अध्यात्म का प्रतीक होता है। मां की पूजा के बाद छोटी बच्चियों और कुंवारी कन्याओं को भोजन कराना चाहिए। भोजन से पहले कन्याओं के पैर धोकर आशीर्वाद लेना चाहिए। उन्हें मां के प्रसाद के साथ दक्षिणा दें और चरण स्पर्श करते हुए विदा करें। जो भक्त नवरात्र में कन्यापूजन और नवमी के पूजन के साथ व्रत का समापन करते हैं, उन्हें इस संसार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।


सर्व मंगल करने वाली हैं महागौरी

सर्व मंगल करने वाली श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन किया जाता है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं।


 


“श्वेत वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बर धरा शुचि:।


महागौरी शुभं दद्यान्महादेव प्रमोददा॥“


 


माँ महागौरीकी आराधना से किसी प्रकार के रूप और मनोवांछित फल प्राप्त किया जा सकता है। उजले वस्त्र धारण किये हुए महादेव को आनंद देने वाली शुद्धता मूर्ती देवी महागौरी मंगलदायिनी हों।


 


दुर्गा पूजा नवरात्री अष्टमी पूजा – अष्टमी तिथि महागौरी की पूजा


देवी दुर्गा के नौ रूपों में महागौरी आठवीं शक्ति स्वरूपा हैं। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की पूजा अर्चना की जाती है। महागौरी आदी शक्ति हैं इनके तेज से संपूर्ण विश्व प्रकाश-मान होता है इनकी शक्ति अमोघ फलदायिनी है। माँ महागौरी की अराधना से भक्तों को सभी कष्ट दूर हो जाते हैं तथा देवी का भक्त जीवन में पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी बनता है। दुर्गा सप्तशती में शुभ निशुम्भ से पराजित होकर गंगा के तट पर जिस देवी की प्रार्थना देवतागण कर रहे थे वह महागौरी हैं। देवी गौरी के अंश से ही कौशिकी का जन्म हुआ जिसने शुम्भ निशुम्भ के प्रकोप से देवताओं को मुक्त कराय।। यह देवी गौरी शिव की पत्नी हैं यही शिवा और शाम्भवी के नाम से भी पूजित होती हैं।


 


महागौरी स्वरूप :


महागौरी की चार भुजाएं हैं उनकी दायीं भुजा अभय मुद्रा में हैंऔर नीचे वाली भुजा में त्रिशूल शोभता है। बायीं भुजा में डमरू डम डम बज रही है और नीचे वाली भुजा से देवी गौरी भक्तों की प्रार्थना सुनकर वरदान देती हैं। जो स्त्री इस देवी की पूजा भक्ति भाव सहित करती हैं उनके सुहाग की रक्षा देवी स्वयं करती हैं। कुंवारी लड़की मां की पूजा करती हैं तो उसे योग्य पति प्राप्त होता है।  पुरूष जो देवी गौरी की पूजा करते हैं उनका जीवनसुखमय रहता है देवी उनके पापों को जला देती हैं और शुद्ध अंत:करण देती हैं. मां अपने भक्तों को अक्षय आनंद और तेज प्रदान करती हैं.


 


दुर्गा पूजा अष्टमी महागौरी की पूजा विधि :


नवरात्रे के दसों दिन कुवारी कन्या भोजन कराने का विधान है परंतु अष्टमी के दिन का विशेष महत्व है। इस दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी भेंट करती हैं। देवी गौरी की पूजा का विधान भी पूर्ववत है अर्थात जिस प्रकार सप्तमी तिथि तक आपने मां की पूजा की है उसी प्रकार अष्टमी के दिन भी देवी की पंचोपचार सहित पूजा करें।  देवी का ध्यान करने के लिए दोनों हाथ जोड़कर इस मंत्र का उच्चारण करें “सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि। सेव्यामाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी॥”.


 


महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं। देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं।


“सर्वमंगल मांग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते.


पापियों का नाश करती हैं मां कालरात्रि

मां दुर्गा के सातवें स्वरूप या शक्ति को कालरात्रि कहा जाता है। दुर्गा-पूजा के सातवें दिन माँ काल रात्रि की उपासना का विधान है। मां कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, इनका वर्ण अंधकार की भाँतिकाला है, केश बिखरे हुए हैं, कंठ में विद्युत की चमक वाली माला है, माँ कालरात्रि के तीन नेत्र ब्रह्माण्ड की तरह विशाल व गोल हैं, जिनमें से बिजली की भाँति किरणें निकलती रहती हैं, इनकी नासिका से श्वास तथा निःश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं। माँ का यह भय उत्पन्न करने वाला स्वरूप केवल पापियों का नाश करने के लिए है।


माँ कालरात्रि अपने भक्तों को सदैव शुभ फल प्रदान करने वाली होती हैं इस कारण इन्हें शुभंकरी भी कहा जाता है।दुर्गा पूजा के सप्तम दिन साधक का मन ‘सहस्रार’ चक्र में अवस्थित होता है। कालरात्रिमर्हारात्रिर्मोहरात्रिश्र्च दारूणा. त्वं श्रीस्त्वमीश्र्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा..मधु कैटभ नामक महापराक्रमी असुर से जीवन की रक्षा हेतु भगवान विष्णु को निंद्रा से जगाने के लिए ब्रह्मा जी ने इसी मंत्र से मां की स्तुति की थी। यह देवी काल रात्रि ही महामाया हैं और भगवान विष्णु की योगनिद्रा हैं। इन्होंने ही सृष्टि को एक दूसरे से जोड़ रखा है.देवी काल-रात्रि का वर्ण काजल के समान काले रंग का है जो अमावस की रात्रि से भी अधिक काला है। मां कालरात्रि के तीन बड़े बड़े उभरे हुए


नेत्र हैं जिनसे मां अपने भक्तों पर अनुकम्पा की दृष्टि रखती हैं. देवी की चार भुजाएं हैं दायीं ओर की उपरी भुजा से महामाया भक्तों को वरदान दे रही हैं और नीचे की भुजा से अभय का आशीर्वाद प्रदान कर रही हैं। बायीं भुजा में क्रमश: तलवार और खड्ग धारण किया है। देवी कालरात्रि के बाल खुले हुए हैं और हवाओं में लहरा रहे हैं। देवी काल रात्रि गर्दभ पर सवार हैं। मां का वर्ण काला होने पर भी कांतिमय और अद्भुत दिखाई देता है. देवी कालरात्रि का यह विचित्र रूप भक्तों के लिए अत्यंत शुभ है अत: देवी को शुभंकरी भी कहा गया है।


सप्तमी दिन – कालरात्रि की पूजा विधि :


देवी का यह रूप ऋद्धि सिद्धि प्रदान करने वाला है। दुर्गा पूजा का सातवां दिन तांत्रिक क्रिया की साधना करने वाले भक्तों के लिए अति महत्वपूर्ण होता है ।  सप्तमी पूजा के दिन तंत्र साधना करने वाले साधक मध्य रात्रि में देवी की तांत्रिक विधि से पूजा करते हैं। इस दिन मां की आंखें खुलती हैं। षष्ठी पूजा के दिन जिस विल्व को आमंत्रित किया जाता है उसे आज तोड़कर लाया जाता है और उससे मां की आँखें बनती हैं. दुर्गा पूजा में सप्तमी तिथि का काफी महत्व बताया गया है। इस दिन से भक्त जनों के लिए देवी


मां का दरवाज़ा खुल जाता है और भक्तगण पूजा स्थलों पर देवी के दर्शन हेतु पूजा स्थल पर जुटने लगते हैं।


सप्तमी की पूजा सुबह में अन्य दिनों की तरह ही होती परंतु रात्रि में विशेष विधान के साथ देवी की पूजा की जाती है।इस दिन अनेक प्रकार के मिष्टान एवं कहीं कहीं तांत्रिक विधि से पूजा होने पर मदिरा भी देवी को अर्पित कि जाती है। सप्तमी की रात्रि ‘सिद्धियों’ की रात भी कही जाती है। कुण्डलिनी जागरण हेतु जो साधक साधना में लगे होते हैं आज सहस्त्रसार चक्र का भेदन करते हैं। पूजा विधान में शास्त्रों में जैसा वर्णित हैं उसके अनुसार पहले कलश की पूजा करनी चाहिए फिर नवग्रह, दशदिक्पाल, देवी के परिवार में उपस्थित देवी देवता की पूजा करनी चाहिए फिर मां कालरात्रि की पूजा करनी चाहिए। देवी की पूजा से पहले उनका ध्यान करना चाहिए


गुरुवार, 22 अक्तूबर 2020

जानिए कब है दुर्गा अष्टमी और नवमी

मुजफ्फरनगर । नवरात्रि में अष्टमी के भ्रम को लेकर ज्योतिषियों का कहना है कि 24 अक्टूबर को सुबह 6.57 बजे से अष्टमी तिथि का आगमन हो रहा है। 



ज्योतिषाचार्यों के मुताबिक, अष्टमी और नवमी एक ही दिन होने के बावजूद भी देवी मां की आराधना के लिए भक्तों को पूरे नौ दिन मिलेंगे। इस साल अष्टमी तिथि का प्रारंभ 23 अक्टूबर (शुक्रवार) को सुबह 06 बजकर 57 मिनट से हो रहा है, जो कि अगले दिन 24 अक्टूबर (शनिवार) को सुबह 06 बजकर 58 मिनट तक रहेगी। इसके बाद नवमी आ जाएगी। ज्योतिर्विद पंडित अतुलेश मिश्र के अनुसार, जो लोग पहला और आखिरी नवरात्रि व्रत रखते हैं, उन्हें अष्टमी व्रत 24 अक्टूबर को रखना चाहिए। ज्योतिषाचार्य के अनुसार ऎसे लोगों को 24 अक्टूबर को अष्टमी व्रत रखना उत्तम है।  इस दिन महागौरी की पूजा का विधान है। रविवार को विजयादशमी है।


शत्रुओं पर विजय और सुख समृद्धि देती है मां कात्यायनी की पूजा

नवरात्र के छठे दिन देवी कात्यायनी की पूजा की जाती है। मां कात्यायनी ही देवी दुर्गा का छठा स्वरूप हैं। स्कंद पुराण में कहा गया है कि देवी के कात्यायनी रूप की उत्पत्ति परमेश्वर के नैसर्गिक क्रोध से हुई थी और इन्होंने देवी पार्वती द्वारा दिए गए शेर पर विराजमान होकर महिषासुर का वध किया था। मार्केंडय पुराण में भी देवी कात्यायनी के स्वरूप और उनके


 प्रकट होने की कथा बताई गई है।


देवी कात्यायनी की पूजा करने से शक्ति का संचार होता है और इनकी कृपा से दुश्मनों पर भी जीत मिलती है। मां कात्यायनी की पूजा-अर्चना में शहद का प्रयोग किया जाना चाहिए क्योंकि मां को शहद बहुत पसंद है।शहद से बना पान भी मां को प्रिय है इसलिए इनकी पूजा में भी चढ़ाया जा सकता है। देवी को शहद का भाेग लगाने से आकर्षण शक्ति बढ़ती है और प्रसिद्धि भी मिलती है। देवी कात्यायनी की पूजा करने से चेहरे की कांति और तेज बढ़ता है। शत्रु का शमन होता है। इनकी पूजा से सुख और समृद्धि भी बढ़ती है।देवी कात्यायनी की पूजा से अविवाहित लोगों के विवाह योग जल्दी बनते हैं और लड़कियों को सुयोग्य वर मिलता है।


पूजा विधि


सुबह जल्दी उठें और नहाकर लाल रंग के कपड़े पहनें।देवी कात्यायनी की तस्वीर को पूजा स्थल पर स्थापित करें और उनका पूरा श्रृंगार करें।देवी को लाल रंग प्रिय है इसलिए लाल रंग की सामग्री से इनका श्रृंगार करना चाहिए।इसके बाद घी का दीपक जलाएं, धूप जलाएं और सभी प्रकार के फल और मेवों का प्रसाद चढ़ाएं।फूलों की माला हाथ में लेकर कात्यायनी मां का ध्यान और आरती करें। संध्या पूजा विशेष फलदायी है। 


 


देवी कात्यायनी की पूजा का मंत्र


 


या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। 


नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥


 


अर्थ - हे माँ! सर्वत्र विराजमान और शक्ति -रूपिणी प्रसिद्ध अम्बे, मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।


बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

संतान, ज्ञान और सुख-शांति देती हैं माँ स्कंदमाता


नवरात्रि के पांचवे दिन स्कन्दमाता शेर पर सवार होकर आती हैं. स्कन्दमाता की पूजा करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और उसे इस मृत्युलोक में परम शांति का अनुभव होने लगता है. माता की कृपा से उसके लिए मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं। 


स्कन्दमाता माता को पद्मासना देवी भी कहा जाता है. इनकी गोद में कार्तिकेय बैठे होते हैं इसलिए इनकी पूजा करने से कार्तिकेय की पूजा अपने आप हो जाती है. वंश आगे बढ़ता है और संतान संबधी सारे दुख दूर हो जाते हैं. घर-परिवार में हमेशा खुशहाली रहती है. कार्तिकेय की पूजा से मंगल भी मजबूत होता है. मां स्कंदमाता को ज्ञान, सुख शांति की देवी माना गया है.


स्कंदमाता की पूजा विधि


इस दिन पीले रंगे के कपड़े पहनकर माता की पूजा करें, इससे शुभ फल की प्रप्ति होती है. उन्हें पीले फूल अर्पित करें. उन्हें मौसमी फल, केले, चने की दाल का भोग लगाएं। 


मां स्कंदमाता की कथा


पौराणिक कथा के अनुसार तारकासुर नाम एक राक्षस ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या करने लगा. कठोर तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और उसके सामने प्रकट हुए. ब्रह्मा जी ने उससे वरदान मांगने को कहा. वरदान के रूप में तारकासुर ने अमर करने के लिए कहा. तब ब्रह्मा जी ने उसे समझाया की इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया है उसे मरना ही है. निराश होकर उसने ब्रह्मा जी कहा कि प्रभु ऐसा कर दें कि भगवान शिव के पुत्र द्वारा ही उसकी मृत्यु हो. तारकासुर की ऐसी धारणा थी कि भगवान शिव विवाह नहीं करेंगे. इसलिए उसकी मृत्यु नहीं होगी. ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया और अदृश्य हो गए. इसके बाद उसने लोगों पर अत्याचार करना आरंभ कर दिया. तारकासुर के अत्याचारों से परेशान होकर सभी देवतागण भगवान शिव के पास पहुंचे और मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की. तब शिव जी ने पार्वती जी से विवाह किया और कार्तिकेय के पिता बनें. बड़े होने के बाद भगवान कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया. स्कंदमाता भगवान कार्तिकेय की माता हैं। 


 


 


कामाख्या मंदिर का यह गुप्त रहस्य जानकार होश उड़ जायेंगे आपके, दुनिया से छुपा था अब तक!!!!!!!!


 


51 शक्तिपीठों में से एक कामाख्या शक्तिपीठ बहुत ही प्रसिद्ध और चमत्कारी है। कामाख्या देवी का मंदिर अघोरियों और तांत्रिकों का गढ़ माना जाता है। असम की राजधानी दिसपुर से लगभग 7 किलोमीटर दूर स्थित यह शक्तिपीठ नीलांचल पर्वत से 10 किलोमीटर दूर है। कामाख्या मंदिर सभी शक्तिपीठों का महापीठ माना जाता है। 


 


इस मंदिर में देवी दुर्गा या मां अम्बे की कोई मूर्ति या चित्र आपको दिखाई नहीं देगा। वल्कि मंदिर में एक कुंड बना है जो की हमेशा फूलों से ढ़का रहता है। इस कुंड से हमेशा ही जल निकलता रहतै है। चमत्कारों से भरे इस मंदिर में देवी की योनि की पूजा की जाती है और योनी भाग के यहां होने से माता यहां रजस्वला भी होती हैं। मंदिर से कई अन्य रौचक बातें जुड़ी है, आइए जनते हैं ...


 


मंदिर धर्म पुराणों के अनुसार माना जाता है कि इस शक्तिपीठ का नाम कामाख्या इसलिए पड़ा क्योंकि इस जगह भगवान शिव का मां सती के प्रति मोह भंग करने के लिए विष्णु भगवान ने अपने चक्र से माता सती के 51 भाग किए थे जहां पर यह भाग गिरे वहां पर माता का एक शक्तिपीठ बन गया और इस जगह माता की योनी गिरी थी, जोकी आज बहुत ही शक्तिशाली पीठ है। यहां वैसे तो सालभर ही भक्तों का तांता लगा रहता है लेकिन दुर्गा पूजा, पोहान बिया, दुर्गादेऊल, वसंती पूजा, मदानदेऊल, अम्बुवासी और मनासा पूजा पर इस मंदिर का अलग ही महत्व है जिसके कारण इन दिनों में लाखों की संख्या में भक्त यहां पहुचतें है।


 


हर साल यहां अम्बुबाची मेला के दौरान पास में स्थित ब्रह्मपुत्र का पानी तीन दिन के लिए लाल हो जाता है। पानी का यह लाल रंग कामाख्या देवी के मासिक धर्म के कारण होता है। फिर तीन दिन बाद दर्शन के लिए यहां भक्तों की भीड़ मंदिर में उमड़ पड़ती है।


 


 आपको बता दें की मंदिर में भक्तों को बहुत ही अजीबो गरीब प्रसाद दिया जाता है। दूसरे शक्तिपीठों की अपेक्षा कामाख्या देवी मंदिर में प्रसाद के रूप में लाल रंग का गीला कपड़ा दिया जाता है। 


 


कहा जाता है कि जब मां को तीन दिन का रजस्वला होता है, तो सफेद रंग का कपडा मंदिर के अंदर बिछा दिया जाता है। तीन दिन बाद जब मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं, तब वह वस्त्र माता के रज से लाल रंग से भीगा होता है। इस कपड़ें को अम्बुवाची वस्त्र कहते है। इसे ही भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है।


 


1. मनोकामना पूरी करने के लिए यहां कन्या पूजन व भंडारा कराया जाता है। इसके साथ ही यहां पर पशुओं की बलि दी जाती ही हैं। लेकिन यहां मादा जानवरों की बलि नहीं दी जाती है।


 


2. काली और त्रिपुर सुंदरी देवी के बाद कामाख्या माता तांत्रिकों की सबसे महत्वपूर्ण देवी है। कामाख्या देवी की पूजा भगवान शिव के नववधू के रूप में की जाती है, जो कि मुक्ति को स्वीकार करती है और सभी इच्छाएं पूर्ण करती है।


 


3.मंदिर परिसर में जो भी भक्त अपनी मुराद लेकर आता है उसकी हर मुराद पूरी होती है। इस मंदिर के साथ लगे एक मंदिर में आपको मां का मूर्ति विराजित मिलेगी। जिसे कामादेव मंदिर कहा जाता है।


 


4. माना जाता है कि यहां के तांत्रिक बुरी शक्तियों को दूर करने में भी समर्थ होते हैं। हालांकि वह अपनी शक्तियों का इस्तेमाल काफी सोच-विचार कर करते हैं। कामाख्या के तांत्रिक और साधू चमत्कार करने में सक्षम होते हैं। कई लोग विवाह, बच्चे, धन और दूसरी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कामाख्या की तीर्थयात्रा पर जाते हैं।


 


5. कामाख्या मंदिर तीन हिस्सों में बना हुआ है। पहला हिस्सा सबसे बड़ा है इसमें हर व्यक्ति को नहीं जाने दिया जाता, वहीं दूसरे हिस्से में माता के दर्शन होते हैं जहां एक पत्थर से हर वक्त पानी निकलता रहता है। माना जाता है कि महीनें के तीन दिन माता को रजस्वला होता है। इन तीन दिनो तक मंदिर के पट बंद रहते है। तीन दिन बाद दुबारा बड़े ही धूमधाम से मंदिर के पट खोले जाते है।


 


6. इस जगह को तंत्र साधना के लिए सबसे महत्वपूर्ण जगह मानी जाती है। यहां पर साधु और अघोरियों का तांता लगा रहता है। यहां पर अधिक मात्रा में काला जादू भी किया जाता ह। अगर कोई व्यक्ति काला जादू से ग्रसित है तो वह यहां आकर इस समस्या से निजात पा सकता है।


सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

तेज, ज्ञान, यश और सन्तान सुख देने वाली हैं माँ कूष्मांडा

नवरात्र के चौथे दिन दुर्गा जी के चतुर्थ रूप मां कूष्मांडा की पूजा की जाती है। माना जाता है कि  जब सृष्टि में चारों ओर अंधकार था और कोई भी जीव-जंतु नही था। तब मां ने सृष्टि की रचना की। इसी कारण इन्हें कुष्मांडा देवी के नाम से जाना जाता है।


आदिशक्ति दुर्गा के कुष्मांडा रूप में चौथा स्वरूप भक्तों को संतति सुख प्रदान करने वाला है। आज के दिन पहले मां का ध्यान मंत्र पढ़कर उनका आहवान किया जाता है और फिर मंत्र पढ़कर उनकी आराधना की जाती है।


कूष्मांडा का मतलब है कि जिन्होंने अपनी मंद (फूलों) सी मुस्कान से सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड को अपने गर्भ में उत्पन्न किया। माना जाता है कि मां कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। मां कूष्मांडा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं। इनकी आराधना करने से भक्तों को तेज, ज्ञान, प्रेम, उर्जा, वर्चस्व, आयु, यश, बल, आरोग्य और संतान का सुख प्राप्त होता है।


 


नौ औषधियों में विराजमान हैं दुर्गा की शक्ति 


मान्यता है कि नवदुर्गा के नौ औषधि स्वरूपों को सबसे पहले मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के रूप में दर्शाया गया और चिकित्सा प्रणाली के इस रहस्य को ब्रह्माजी द्वारा उपदेश में दुर्गाकवच कहा गया है।


ऐसा माना जाता है कि यह औषधियां समस्त प्राणियों के रोगों को हरने वाली और और उनसे बचा रखने के लिए एक कवच का कार्य करती हैं, इसलिए इसे दुर्गाकवच कहा गया। इनके प्रयोग से मनुष्य अकाल मृत्यु से बचकर सौ वर्ष तक आराम से जीवन जी सकता है। आयुर्वेद के अनुसार दिव्य गुणों वाली उन 9 औषधियों के बारे में जिन्हें नवदुर्गा कहा गया है वह इस प्रकार हैं...


1. प्रथम शैलपुत्री यानि हरड़ - नवदुर्गा का प्रथम रूप शैलपुत्री माना गया है। कई प्रकार की समस्याओं में काम आने वाली औषधि हरड़, हिमावती है जो देवी शैलपुत्री का ही एक रूप हैं। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है, जो सात प्रकार की होती है।


इसमें हरीतिका (हरी) भय को हरने वाली है।


पथया - जो हित करने वाली है।


कायस्थ - जो शरीर को बनाए रखने वाली है।


अमृता - अमृत के समान।


हेमवती - हिमालय पर होने वाली।


चेतकी - चित्त को प्रसन्न करने वाली है।


श्रेयसी (यशदाता) शिवा - कल्याण करने वाली।


2. द्वितीय ब्रह्मचारिणी यानि ब्राह्मी - ब्राह्मी, नवदुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी है। यह आयु और स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाली, रूधिर विकारों का नाश करने वाली और स्वर को मधुर करने वाली है। इसलिए ब्राह्मी को सरस्वती भी कहा जाता है।


यह मन व मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती है और गैस व मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है। अत: इन रोगों से पीडित व्यक्ति को ब्रह्मचारिणी की आराधना करनी चाहिए।


3. तृतीय चंद्रघंटा यानि चन्दुसूर - नवदुर्गा का तीसरा रूप है चंद्रघंटा, इसे चन्दुसूर या चमसूर कहा गया है। यह एक ऐसा पौधा है जो धनिये के समान है। इस पौधे की पत्तियों की सब्जी बनाई जाती है, जो लाभदायक होती है। यह औषधि मोटापा दूर करने में लाभप्रद है, इसलिए इसे चर्महन्ती भी कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली, हृदय रोग को ठीक करने वाली चंद्रिका औषधि है। अत: इस बीमारी से संबंधित रोगी को चंद्रघंटा की पूजा करनी चाहिए।


4. चतुर्थ कुष्माण्डा यानि पेठा - नवदुर्गा का चौथा रूप कुष्माण्डा है। इस औषधि से पेठा मिठाई बनती है, इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं जो पुष्टिकारक, वीर्यवर्धक व रक्त के विकार को ठीक कर पेट को साफ करने में सहायक है।


मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत समान है। यह शरीर के समस्त दोषों को दूर कर हृदय रोग को ठीक करता है। कुम्हड़ा रक्त पित्त एवं गैस को दूर करता है। इन बीमारी से पीडित व्यक्ति को पेठा का उपयोग के साथ कुष्माण्डा देवी की आराधना करनी चाहिए।


5. पंचम स्कंदमाता यानि अलसी - नवदुर्गा का पांचवा रूप स्कंदमाता है जिन्हें पार्वती व उमा भी कहते हैं। यह औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं। यह वात, पित्त, कफ, रोगों की नाशक औषधि है।


अलसी नीलपुष्पी पावर्तती स्यादुमा क्षुमा।


अलसी मधुरा तिक्ता स्त्रिग्धापाके कदुर्गरु:।।


उष्णा दृष शुकवातन्धी कफ पित्त विनाशिनी।


इस रोग से पीड़ित व्यक्ति ने स्कंदमाता की आराधना करनी चाहिए।


6. षष्ठम कात्यायनी यानि मोइया - नवदुर्गा का छठा रूप कात्यायनी है। इसे आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका। 


इसके अलावा इसे मोइया अर्थात माचिका भी कहते हैं। यह कफ, पित्त, अधिक विकार व कंठ के रोग का नाश करती है। इससे पीडित रोगी को इसका सेवन व कात्यायनी की आराधना करनी चाहिए।


7. सप्तम कालरात्रि यानि नागदौन - दुर्गा का सप्तम रूप कालरात्रि है जिसे महायोगिनी, महायोगीश्वरी कहा गया है। यह नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती है। सभी प्रकार के रोगों की नाशक सर्वत्र विजय दिलाने वाली मन एवं मस्तिष्क के समस्त विकारों को दूर करने वाली औषधि है।इस पौधे को व्यक्ति अपने घर में लगाने पर घर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। यह सुख देने वाली और सभी विषों का नाश करने वाली औषधि है। इस कालरात्रि की आराधना प्रत्येक पीडित व्यक्ति को करनी चाहिए।


8. अष्टम महागौरी यानि तुलसी - नवदुर्गा का अष्टम रूप महागौरी है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति औषधि के रूप में जानता है क्योंकि इसका औषधि नाम तुलसी है जो प्रत्येक घर में लगाई जाती है। तुलसी सात प्रकार की होती है- सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरुता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र। ये सभी प्रकार की तुलसी रक्त को साफ करती है व हृदय रोग का नाश करती है।


तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमंजरी।


अपेतराक्षसी महागौरी शूलघ्नी देवदुन्दुभि:


तुलसी कटुका तिक्ता हुध उष्णाहाहपित्तकृत् ।


मरुदनिप्रदो हध तीक्षणाष्ण: पित्तलो लघु:।


इस देवी की आराधना हर सामान्य व रोगी व्यक्ति को करनी चाहिए।


9. नवम सिद्धिदात्री यानि शतावरी - नवदुर्गा का नवम रूप सिद्धिदात्री है, जिसे नारायणी या शतावरी कहते हैं। शतावरी बुद्धि बल व वीर्य के लिए उत्तम औषधि है।


यह रक्त विकार औरं वात पित्त शोध नाशक और हृदय को बल देने वाली महाऔषधि है। सिद्धिदात्री का जो मनुष्य नियमपूर्वक सेवन करता है। उसके सभी कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते हैं। इससे पीडित व्यक्ति को सिद्धिदात्री देवी की आराधना करनी चाहिए।


इस प्रकार प्रत्येक देवी आयुर्वेद की भाषा में मार्कण्डेय पुराण के अनुसार नौ औषधि के रूप में मनुष्य की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर रक्त का संचालन उचित व साफ कर मनुष्य को स्वस्थ करतीं है। अत: मनुष्य को इनकी आराधना एवं सेवन करना चाहिए।


रविवार, 18 अक्तूबर 2020

जानिए नवरात्र में क्यों जलाते हैं अखंड जोत


नवरात्र में क्यों जलाते हैं अखंड ज्योतपावन


नवरात्र में तीसरे दिन मां चंद्रघंटा की उपासना की जाती है। मां चंद्रघंटा का रूप बहुत सौम्य है। मां का स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। मां के मस्तक में घंटे का आकार का अर्द्धचंद्र है, इसलिए मां को चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। मां के दिव्य स्वरूप का ध्यान करने से हर तरफ सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो जाता है।


मां को लाल रंग के फूल अर्पित करें। मां की उपासना करते समय मंदिर की घंटी अवश्य बजाएं। घंटे की ध्वनि से मां अपने भक्तों पर हमेशा अपनी कृपा बरसाती हैं। मां को मखाने की खीर का भोग लगाना शुभ माना जाता है। मां की आराधना से अहंकार नष्ट हो जाता है। मां की आराधना से घर-परिवार में शांति आती है। तृतीय नवरात्र पर लाल रंग के वस्त्र पहनना शुभ माना जाता है। मां को गाय का दुग्ध अर्पित करने से दुखों से मुक्ति मिलती है। माता चंद्रघंटा को शहद का भोग लगाना शुभ माना जाता है। मां की आराधना से सभी कष्टों का निवारण होता है। मां सौभाग्य, शांति और वैभव प्रदान करती हैं। मां का उपासक निर्भय हो जाता है। मां चंद्रघंटा के भक्त जहां भी जाते हैं लोग उन्हें देखकर शांति और सुख का अनुभव करते हैं।


नवरात्र यानि नौ दिनों तक चलने वाली देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों की आराधना के साथ ही इस पावन पर्व पर कई घरों में घटस्थापना होती है, तो कई जगह अखंड ज्योत का विधान है। शक्ति की आराधना करने वाले जातक अखंड ज्योति जलाकर माँ दुर्गा की साधना करते हैं। अखंड ज्योति अर्थात ऐसी ज्योति जो खंडित न हो। अखंड ज्योत पूरे नौ दिनों तक अखंड रहनी चाहिए यानी जलती रहनी चाहिए। अंखड दीप को विधिवत मत्रोच्चार से प्रज्जवलित करना चाहिए। नवरात्री में कई नियमो का पालन किया जाता है।


 *अखंड ज्योत का महत्व* 


नवरात्री में अखंड ज्योत का बहुत महत्व होता है। इसका बुझना अशुभ माना जाता है। जहा भी ये अखंड ज्योत जलाई जाती है वहा पर किसी न किसी की उपस्थिति जरुरी होती इसे सूना छोड़ कर नहीं जाते है। अखंड ज्योत में दीपक की लौ बांये से दांये की तरफ जलनी चाहिए। इस प्रकार का जलता हुआ दीपक आर्थिक प्राप्‍ति का सूचक होता है। दीपक का ताप दीपक से 4 अंगुल चारों ओर अनुभव होना चाहिए, इससे दीपक भाग्योदय का सूचक होता है। जिस दीपक की लौ सोने के समान रंग वाली हो वह दीपक आपके जीवन में धन-धान्य की वर्षा कराता है एवं व्यवसाय में तरक्की का सन्देश देता है।


निरंन्तर १ वर्ष तक अंखड ज्योति जलने से हर प्रकार की खुशियों की बौछार होती है। ऐसा दीपक वास्तु दोष, क्लेश, तनाव, गरीबी आदि सभी प्रकार की समस्याओं को दूर करता है। अगर आपकी अखंड ज्योति बिना किसी कारण के स्वयं बुझ जाए तो इसे अशुभ माना जाता। दीपक में बार-बार बत्ती नहीं बदलनी चाहिए। दीपक से दीपक जलाना भी अशुभ माना जाता है। ऐसा करने से रोग में वृद्ध‍ि होती है, मांगलिक कार्यो में बाधायें आती हैं। संकल्प लेकर किए अनुष्‍ठान या साधना में अखंड ज्योति जलाने का प्रावधान है। अखंड ज्योति में घी डालने या फिर उसमें कुछ भी बदलाव का काम साधक को ही करना चाहिए, अन्य किसी व्यक्ति से नहीं करवाना चाहिए।


अंखड ज्योत स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा


दरअसल ऐसा माना जाता है कि मां के सामने अंखड ज्योति जलाने से उस घर में हमेशा से मां की कृपा रहती हैं। नवरात्र में अंखड दीप जलाना स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है क्योंकि घी और कपूर की महक से इंसान की श्वास और नर्वस सिस्टम बढ़िया रहता है। नवरात्र में अखंड दीप जलाने से मां कभी अपने भक्तों से नाराज नहीं होती हैं। नवरात्र में अखंड ज्योति से पूजा स्थल पर कभी भी अनाप-शनाप चीजों का साया नहीं पड़ता है। नवरात्र में घी या तेल का अखंड दीप जलाने से दिमाग में कभी भी नकारात्मक सोच हावी नहीं होती है और चित्त खुश और शांत रहता है। घर में सुगंधित दीपक की महक चित्त शांत रखता है जिसके चलते घर में झगड़े नहीं होते, वातावरण शांत रहता है।


शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

राशि के अनुसार करिये नवरात्र पूजा, मिलेगा इच्छित लाभ


नवरात्र में राशि के अनुसार पूजा कर मनवांछित फल प्राप्त कर सकते हैं। 


मेष-  मेष राशि वाले प्रात:काल रुद्राष्टक के 11 पाठ करें।


वृषभ- वृषभ राशि वाले प्रात:काल देवी-कवच का पाठ करें। 


मिथुन- मिथुन राशि वाले प्रात:काल गणपति-अथर्वशीर्ष का पाठ करें। 


कर्क- कर्क राशि वाले गौरी-जी की आराधना करें। 


सिंह- सिंह राशि वाले आदित्य-ह्रदय-स्तोत्र के 11 पाठ करें। 


कन्या- कन्या राशि वाले गायत्री-मंत्र जाप करें। 


तुला- तुला राशि वाले श्री-सूक्तम का पाठ करें। 


वृश्चिक- वृश्चिक राशि वाले मंगला-स्तोत्र का पाठ करें। 


धनु- धनु राशि वाले साई-चरित्र का पाठ करें। 


मकर- मकर राशि वाले हनुमान चालीसा के 11 पाठ नौ दिन करें।


समाज वाद के असली प्रवर्तक हैं महाराजा अग्रसेन

दुनिया में आज जिस समाजवाद की बात की जाती है उसको 5000 वर्ष पूर्व ही महाराजा अग्रसेन ने सार्थक कर दिखाया था। महाराजा अग्रसेन को समाजवाद का सच्चा प्रणेता कहा जाता है। महाराजा अग्रसेन ने तंत्रीय शासन प्रणाली के प्रतिकार में एक नयी व्यवस्था को जन्म दिया। अपने क्षेत्र में सच्चे समाजवाद की स्थापना हेतु महाराजा अग्रसेन ने नियम बनाया था कि उनके नगर में बाहर से आकर बसने वाले हर व्यक्ति की सहायता के लिए नगर का प्रत्येक निवासी उसे एक रुपया नगद व एक ईंट देगा, जिससे आसानी से उसके लिए निवास स्थान व व्यापार करने के लिये धन का प्रबन्ध हो जाए। उन्होंने पुन: वैदिक सनातन आर्य सस्कृंति की मूल मान्यताओं को लागू कर राज्य के पुनर्गठन में कृषि-व्यापार, उद्योग, गौपालन के विकास के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की पुन: प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया। महाराजा अग्रसेन समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे जो सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय: कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेंगे।


धार्मिक मान्यतानुसार मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम की चौंतीसवीं पीढ़ी में सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल के महाराजा वल्लभ सेन के घर में द्वापर के अन्तिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को महाराजा अग्रसेन का जन्म हुआ, जिसे दुनिया भर में अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र हुये थे। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ऋषि ने महाराज वल्लभ से कहा था कि यह बालक बहुत बड़ा राजा बनेगा। इस के राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हजारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा। उनके राज में कोई दुखी या लाचार नहीं था। बचपन से ही वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक धार्मिक, शांति दूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले, करुणानिधि, सब जीवों से प्रेम, स्नेह रखने वाले दयालू राजा थे।


महाराजा अग्रसेन एक सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा थे। जिन्होंने प्रजा की भलाई के लिए वणिक धर्म अपना लिया था। महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहां आयोजित स्वयंवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया। इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ। 


महाराजा वल्लभ के निधन के बाद अपने नये राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी रानी माधवी के साथ सारे भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्हें एक जगह शेर तथा भेड़िये के बच्चे एक साथ खेलते मिले। उन्हें लगा कि यह दैवीय संदेश है जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है। ऋषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है। वह जगह आज के हरियाणा के हिसार के पास है। आज भी यह स्थान अग्रहरि और अग्रवाल समाज के लिए तीर्थ के समान है। यहां महाराज अग्रसेन और मां लक्ष्मी देवी का भव्य मंदिर है। अग्रसेन ने अपने छोटे भाई शूरसेन को प्रतापनगर का राजपाट सौंप दिया। ऐसी मान्यता है कि महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे।


उन्होंने परिश्रम और उद्योग से धनोपार्जन के साथ-साथ उसका समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। जहां एक ओर वैश्य जाति को व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान किया वहीं दूसरी ओर आत्म-रक्षा के लिए शस्त्रों के उपयोग की शिक्षा पर भी बल दिया। उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोड़े को बहुत बेचैन और डरा हुआ देख उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने अपने मंत्रियों के ना चाहने पर भी पशु बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवंश समाज हिंसा से दूर ही रहता है।


माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 पुत्र के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। माना जाता है कि यज्ञों में बैठे 18 गुरुओं के नाम पर ही अग्रवंश (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई। ऋषियों द्वारा प्रदत्त अठारह गोत्रों को महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों के साथ महाराजा द्वारा बसायी 18 बस्तियों के निवासियों ने भी धारण कर लिया। एक बस्ती के साथ प्रेम भाव बनाये रखने के लिए एक सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि अपने पुत्र और पुत्री का विवाह अपनी बस्ती में नहीं दूसरी बस्ती में करेंगे। आगे चलकर यह व्यवस्था गोत्रों में बदल गई जो आज भी अग्रवाल समाज में प्रचलित है। 


महाराज अग्रसेन ने 108 वर्षों तक राज किया। महाराज अग्रसेन ने एक ओर हिन्दू धर्म ग्रंथों में वैश्य वर्ण के लिए निर्देशित कर्म क्षेत्र को स्वीकार किया और दूसरी ओर देशकाल के परिप्रेक्ष्य में नए आदर्श स्थापित किए। उनके जीवन के मूल रूप से तीन आदर्श हैं- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिक समरूपता एवं सामाजिक समानता। एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श कर वे आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए। 


कहते हैं कि एक बार अग्रोहा में बड़ी भीषण आग लगी। उस पर किसी भी तरह काबू ना पाया जा सका। उस अग्निकांड से हजारों लोग बेघरबार हो गये और जीविका की तलाश में भारत के विभिन्न प्रदेशों में जा बसे। पर उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोड़ी। वे सब आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंद करते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सब महाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण कर समाज की सेवा में लगे हुए हैं।


नवरात्र में नौ देवियों के ये मंत्र हैं रामबाण

 


नवरात्र में नौ देवियों के लिए इन मंत्रों का करें जाप


श्रीमद् देवी भागवत पुराण के छठे अध्याय में श्लोक 59, 60, 61, 62 में 


हे लक्ष्मीकान्त मेरे द्वारा आप को दिया गए यह वागबीज मंत्र (ऐं) कामराज (क्लीं) तथा तृतीय मायाबीज (ह्रीं) मंत्र इनसे युक्त यह सभी कार्य मंत्र परमार्थ प्रदान करने वाले हैं| आप इसे ग्रहण करके निरंतर इसका जाप कीजिए तथा सुख पूर्वक बिहार कीजिए है| हे विष्णु ऐसा करने से आपको ना तो मृत्युभय होगा और न ही कालजनहित भय ही होंगे|| {श्लोक59-60}


जब तक मैं बिहार करती रहूंगी तब तक यह सृष्टि निश्चित रूप से रहेगी और जब मैं संपूर्ण चराचर जगत का संहार कर दूंगी उस समय आप लोग भी मुझ में समाहित हो जाएंगे आप लोग समस्त मनोरथ को पूर्ण करने वाले तथा मोक्ष प्रदान करने वाले इन मंत्रो का अनवरत स्मरण करते रहे ||{श्लोक59-60}


नवरात्रि के 9 दिन मां दुर्गा की पूजा व उपासना के दिन होते हैं. पौराणिक मान्यता के अनुसार नवरात्रि के नौ दिनों तक देवी दुर्गा की पूजा-आराधना का विधान है. नवरात्र के दौरान नव दुर्गा के इन बीज मंत्रों की प्रतिदिन की देवी के दिनों के अनुसार मंत्र जाप करने से मनोरथ सिद्धि होती है. आइए जानें नौ देवियों के दैनिक पूजा के बीज मंत्र-


नव दुर्गा देवी के मंत्र-


1. शैलपुत्री- ह्रीं शिवायै नम:।


2. ब्रह्मचारिणी- ह्रीं श्री अम्बिकायै नम:।


3. चन्द्रघण्टा- ऐं श्रीं शक्तयै नम:।


4. कूष्मांडा- ऐं ह्री देव्यै नम:।


5. स्कंदमाता- ह्रीं क्लीं स्वमिन्यै नम:।


6. कात्यायनी- क्लीं श्री त्रिनेत्रायै नम:।


7. कालरात्रि - क्लीं ऐं श्री कालिकायै नम:।


8. महागौरी- श्री क्लीं ह्रीं वरदायै नम:।


9. सिद्धिदात्री - ह्रीं क्लीं ऐं सिद्धये नम:।


प्रत्येक युग में 9 देवियां अलग-अलग होती हैं. यह एक वृहद विषय है, जिसका उल्लेख यहां संभव नहीं है. शीघ्र सिद्धि के लिए नियत जप-पूजन इत्यादि आवश्यक है. इससे भी अधिक आवश्यक है श्रद्धा व विश्वास. कलियुग में प्रत्येक‍ दिन की देवियां अलग-अलग अधिष्ठात्री हैं, जिनकी साधना से कामना-पूर्ति अलग-अलग है, जो निम्न प्रकार से की जा सकती है.


1. माता शैलपुत्री: पर्वतराज हिमालय की पुत्री माता दुर्गा का प्रथम रूप है. इनकी आराधना से कई सिद्धियां प्राप्त होती हैं.


प्रतिपदा को मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं शैलपुत्र्ये नम:' की माला दुर्गा जी के चित्र के सामने यशाशक्ति जप कर घृत से हवन करें.


2. माता ब्रह्मचारिणी: माता दुर्गा का दूसरा स्वरूप पार्वतीजी का तप करते हुए हैं. इनकी साधना से सदाचार-संयम तथा सर्वत्र विजय प्राप्त होती है. चैत्र नवरात्रि के दूसरे दिन पर इनकी साधना की जाती है.


द्वितिया को मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं ब्रह्मचारिण्यै नम:', की माला दुर्गा जी के चित्र के सामने यशाशक्ति जप कर घृत से हवन करें.


3. माता चन्द्रघंटा: माता दुर्गा का यह तृतीय रूप है. समस्त कष्टों से मुक्ति हेतु इनकी साधना की जाती है.


तृतीया को मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चन्द्रघंटायै नम:' की 1 माला जप कर घृत से हवन करें.


4. माता कुष्मांडा: यह मां दुर्गा का चतुर्थ रूप है. चतुर्थी इनकी तिथि है. आयु वृद्धि, यश-बल को बढ़ाने के लिए इनकी साधना की जाती है.


चतुर्थी को मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै नम:' की 1 माला जप कर घृत से हवन करें.


5. माता स्कंदमा‍ता: दुर्गा जी के पांचवे रूप की साधना पंचमी को की जाती है. सुख-शांति एवं मोक्ष को देने वाली हैं.


पांचवें दिन मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं स्कंदमा‍तायै नम:' की 1 माला जप कर घृत से हवन करें.


6. मां कात्यायनी: मां दुर्गा के छठे रूप की साधना षष्ठी तिथि को की जाती है. रोग, शोक, संताप दूर कर अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष को भी देती हैं.


छठे दिन मंत्र- 'ॐ क्रीं कात्यायनी क्रीं नम:' की 1 माला जप कर घृत से हवन करें.


7. माता कालरात्रि: सप्तमी को पूजित मां दुर्गा जी का सातवां रूप है. वे दूसरों के द्वारा किए गए प्रयोगों को नष्ट करती हैं.


सातवें दिन मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं कालरात्र्यै नम:' की 1 माला जप कर घृत से हवन करें.


8. माता महागौरी: मां दुर्गा के आठवें रूप की पूजा अष्टमी को की जाती है. समस्त कष्टों को दूर कर असंभव कार्य सिद्ध करती हैं.


 आठवें दिन मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महागौर्ये नम:' की 1 माला जप कर घृत या खीर से हवन करें.


9. माता सिद्धिदात्री: मां दुर्गा के इस रूप की अर्चना नवमी को की जाती है. अगम्य को सुगम बनाना इनका कार्य है.


नौवें दिन मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सिद्धिदात्र्यै नम:' की 1 माला जप कर जौ, तिल और घृत से हवन करें.


माता दुर्गा के किसी भी चि‍त्र की स्थापना कर यथाशक्ति पूजन कर, नियत तिथि को मंत्र जपें तथा गौघृत द्वारा यथाशक्ति हवन करें. तंत्र का नियम आदि किसी विद्वान व्यक्ति द्वारा समझकर करें.



गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

नवरात्र पर ये नवार्ण मंत्र करेगा सबका कल्याण

#चमत्कारी औऱ शक्तिशाली नवार्ण मंत्र 


 'ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे' :का अर्थ औऱ महत्व,......🌹🌹🌹🌹🌹🌹



दुर्गा पूजा शक्ति उपासना का पर्व है। शारदीय नवरात्रि में मनाने का कारण यह है कि इस अवधि में ब्रह्मांड के सारे ग्रह एकत्रित होकर सक्रिय हो जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव प्राणियों पर पड़ता है। ग्रहों के इसी दुष्प्रभाव से बचने के लिए नवरात्रि में दुर्गा की पूजा की जाती है। 


* दुर्गा दुखों का नाश करने वाली देवी है। इसलिए नवरात्रि में जब उनकी पूजा आस्था, श्रद्धा से की जाती है तो उनकी नवों शक्तियां जागृत होकर नौ ग्रहों को नियंत्रित कर देती हैं। फलस्वरूप प्राणियों का कोई अनिष्ट नहीं हो पाता।


दुर्गा की इन नौ शक्तियों को जागृत करने के लिए दुर्गा के 'नवार्ण मंत्र' का जाप किया जाता है। नव का अर्थ नौ तथा अर्ण का अर्थ अक्षर होता है। अतः नवार्ण नौ अक्षरों वाला मंत्र है, नवार्ण मंत्र 'ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे' है। 


 


नौ अक्षरों वाले इस नवार्ण मंत्र के एक-एक अक्षर का संबंध दुर्गा की एक-एक शक्ति से है और उस एक-एक शक्ति का संबंध एक-एक ग्रह से है। 


 


* नवार्ण मंत्र के नौ अक्षरों में पहला अक्षर ऐं है, जो सूर्य ग्रह को नियंत्रित करता है। ऐं का संबंध दुर्गा की पहली शक्ति शैल पुत्री से है, जिसकी उपासना 'प्रथम नवरात्र' को की जाती है। 


 


* दूसरा अक्षर ह्रीं है, जो चंद्रमा ग्रह को नियंत्रित करता है। इसका संबंध दुर्गा की दूसरी शक्ति ब्रह्मचारिणी से है, जिसकी पूजा दूसरे नवरात्रि को होती है। 


 


* तीसरा अक्षर क्लीं है, चौथा अक्षर चा, पांचवां अक्षर मुं, छठा अक्षर डा, सातवां अक्षर यै, आठवां अक्षर वि तथा नौवा अक्षर चै है। जो क्रमशः मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ग्रहों को नियंत्रित करता है। 


 


इन अक्षरों से संबंधित दुर्गा की शक्तियां क्रमशः चंद्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धिदात्री हैं, जिनकी आराधना क्रमश : तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें, आठवें तथा नौवें नवरात्रि को की जाती है। 


 


इस नवार्ण मंत्र के तीन देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं तथा इसकी तीन देवियां महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती हैं, दुर्गा की यह नवों शक्तियां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति में भी सहायक होती हैं। 


 


नवार्ण मंत्र का जाप 108 दाने की माला पर कम से कम तीन बार अवश्य करना चाहिए। यद्यपि नवार्ण मंत्र नौ अक्षरों का ही है, परंतु विजयादशमी की महत्ता को ध्यान में रखते हुए, इस मंत्र के पहले ॐ अक्षर जोड़कर इसे दशाक्षर मंत्र का रूप दुर्गा सप्तशती में दे दिया गया है, लेकिन इस एक अक्षर के जुड़ने से मंत्र के प्रभाव पर कोई असर नहीं पड़ता। वह नवार्ण मंत्र की तरह ही फलदायक होता है। अतः कोई चाहे, तो दशाक्षर मंत्र का जाप भी निष्ठा और श्रद्धा से कर सकता है।


मंत्रों के जप से हम अपने शरीर, मन, मस्तिष्क और आत्मा को शुद्ध कर सकते हैं. एक छोटे से मंत्र से मनुष्य के शरीर में असीम शक्ति और ऊर्जा का संचार होने लगता है बशर्ते इसका जप पूरी आस्था और निष्ठा के साथ किया जाए, इस मंत्र के निरंतर जप से आपका बड़े से बड़ा दुश्मन भी दोस्त बन जाएगा. इसके साथ ही इससे आपको कई और फायदे भी हो सकते हैं.


मंत्र के आगे पीछे दोनो तरफ ॐ लगाने से मन्त्र बहुत जल्दी सिद्ध होता है, ऐसा हमारे कुछ सिद्ध सन्त कहते आये है। जैसे हजारों सालों से जीवित महावतार बाबा, लाहिड़ी बाबा आदि।


 


 


 


ये मंत्र है आसान पर है बहुत खास


 


मंत्र- ओम् एम ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे


 


मां दुर्गा का यह आसान मंत्र बहुत खास है. इस मंत्र का निरंतर जप करनेवाले लोगों को आश्चर्यजनक लाभ होते हैं........🌹🌹🌹🌹


 


1- दुश्मन भी बन जाते हैं दोस्त,


कोई आपका कितना ही बड़ा दुश्मन क्यों ना हो इस खास मंत्र का लगातार जप करके देखिए. इसके प्रभाव से आपके दुश्मन भी आपके साथ दोस्तों जैसा व्यवहार करना शुरु कर देंगे और वो आपके हितैशी बन जाएंगे.


 


2- मन को मिलती है शांति,


अधिकांश लोग किसी ना किसी मंत्र का जप निरंतर करते ही रहते हैं लेकिन इस मंत्र के जप से ना सिर्फ आपका मन शांत रहता है बल्कि इससे आपकी एकाग्रता भी बढ़ती है साथ ही इससे ध्यान लगाने में आसानी होती है.


 


3- बढ़ता है हमारा आत्मविश्वास,


अगर किसी भी वजह से आपका आत्मविश्वास कम हो गया है और आप फिर से अपने भीतर आत्मविश्वास को जगाना चाहते हैं तो ये मंत्र आपकी काफी हद तक मदद कर सकता है. इस मंत्र के जप से हमारे दिमाग की सारी नकारात्मकता खत्म हो जाती है और हमारे आत्मविश्वास में गजब की बढ़ोत्तरी होती है.


 


4- नकारात्मक ऊर्जा दूर भगाए,


इस मंत्र के निरंतर जप से मन और शरीर से नकारात्मक ऊर्जा खत्म होने लगती है और शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है. इतना ही नहीं इससे तनाव, अवसाद और चिंता जैसी मानसिक समस्याएं खत्म होने लगती है.


 


5- याददाश्त होती है अच्छी,


इस मंत्र का जप विद्यार्थियों से लेकर वैज्ञानिक भी कर सकते हैं क्योंकि इससे याद करने की शक्ति बढ़ती है और याददाश्त अच्छी होती है. परीक्षा में अच्छे नंबर पाने के लिए या फिर प्रश्नों के उत्तर याद रखने के लिए छात्रों को हर रोज इस मंत्र का जप करना चाहिए. इसके अलावा प्रतियोगी परीक्षा में सफलता पाने के लिए इस मंत्र का जप उत्तम है.


 


6- महिलाओं के लिए लाभदायक,


इस मंत्र का जप करना महिलाओं के लिए काफी लाभदायक माना गया है. जिन महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान असहनीय दर्द होता है. अगर वो महिलाएं इस मंत्र का रोजाना जप करें तो इससे उनके दर्द में कमी आती है.


 


7- हर बुराई से करता है रक्षा,


अगर आप इस मंत्र का लगातार जप करते हैं तो इससे जो लोग आपके खिलाफ कोई साजिश कर रहे हैं उनके दिमाग से आपके प्रति द्वेश और नकारात्मक भावना खत्म हो जाएगी. इसके निरंतर जप से आप खुद ये महसूस करेंगे कि आपके दुश्मन आपसे दूर जा रहे हैं.


 


8- बढ़ती हैं आध्यात्मिक शक्तियां,


इस मंत्र के निरंतर जप से इंसान की आध्यात्मिक शक्तियां बढ़ती हैं. इससे आप आध्यात्म की नई ऊंचाईयों को छू सकते हैं. इससे व्यक्ति ना सिर्फ अपनी जिंदगी को सुधारता है बल्कि वो औरों के जीवन को भी संवारने की क्षमता रखता है.


 


माँ दुर्गा आप सब की मनोकामना पूर्ण करें,..


 


,....🙏🙏..🌹🌹..जय माता दी..🌹🌹..🙏🙏....,


शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

नवरात्र में राशि के अनुसार करिये पूजा, प्रसन्न होंगी जगदंबा


नवरात्र पर मां दुर्गा के भक्त यदि अपनी राशि के अनुसार मां की पूजा तथा दुर्गा सप्तशती का पाठ करेगें तो इससे उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी। दुर्गा सप्तशती का पाठ करना नवरात्र का विशेष पूजन होता है, लेकिन यदि आप समय की कमी के चलते सप्तशती के पूरे पाठ नहीं कर सकते तो अपनी राशि अनुसार दुर्गा सप्तशती का पाठ कर मां की कृपा प्राप्त कर सकते हैं। 


मेषः मंगल प्रधान राशि के इन लोगों को दुर्गा सप्तशती के पहले अध्याय का पाठ करना चाहिए।


वृषः शुक्र प्रधान राशि वालों को दुर्गा सप्तशती के दूसरे अध्याय का पाठ करना चाहिए।


मिथुनः बुध ग्रह से प्रभावित लोगों को दुर्गा सप्तशती के सातवें अध्याय का पाठ करना चाहिए।


कर्क: चन्द्रमा प्रधान कर्क राशि के लोगों को दुर्गा सप्तशती के पांचवे अध्याय का विधिवत पाठ करना चाहिए।


सिंहः सूर्य प्रधान राशि वालों के लिए दुर्गा सप्तशती के तीसरे अध्याय का पाठ करना चाहिए।


कन्याः बुध प्रधान राशिवालों को दुर्गा सप्तशती के दसवें अध्याय का विधिवत पाठ करना चाहिए।


तुलाः शुक्र ग्रह के अनुकूल प्रभाव पाने के लिए आपको दुर्गा सप्तशती के छठे अध्याय का पाठ करना चाहिए।


वृश्चिकः मंगल प्रधान राशि के लोगों को दुर्गा सप्तशती के आठवें अध्याय का पाठ लाभ देगा।


धनु: गुरू ग्रह से प्रभावित राशि होने के कारण दुर्गा सप्तशती के ग्यारहवें अध्याय का पाठ करने से समस्त कष्टों से मुक्ति मिलेगी।


मकरः शनि प्रधान मकर राशि वालों को दुर्गा सप्तशती के आठवें अध्याय का विधिवत पाठ करना शनि से मनवांछित फल मिलेगा।


कुंभ: शनि से प्रभावित इस राशि के लोगों को दुर्गा सप्तशती के चैथे अध्याय का पाठ करने से इन्हें जीवन में सुख-समृद्धि मिलेगी।


मीन: गुरू प्रधान मीन राशि के लोगों को दुर्गा सप्तशती के नौवें अध्याय का पाठ करने से लाभ होगा।


बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

इस बार घोड़े पर सवार होकर आ रही मां दुर्गा, जानिए क्या होगा इसका फल


मुजफ्फरनगर । इस बार श्राद्ध खत्म होने के बाद 18 सितंबर से अधिकमास के कारण शारदीय नवरात्रि 17 अक्टूबर से प्रारंभ होने वाले हैं । इस बार मां दुर्गा घोड़े पर सवार होकर आ रही हैं। उनका प्रस्थान भैंसे पर होगा। यह उथल पुथल और युद्ध एवं रोग के संकेत दे रहा है। 


नवरात्र पर मां दुर्गा की पूजा की तैयारी चल रही है। देवीभाग्वत पुराण के अनुसार मां दुर्गा के आगमन के अलग अलग वाहन हैं और उनके वाहन से भविष्य में आने वाली घटनाओं का संकेत भी मिलता है। इसके अनुसार माना जाता है कि यदि नवरात्रि की शुरुआत सोमवार या रविवार से हो तो माता हाथी पर सवार होकर आएंगी। कलश स्थापना यदि शनिवार या मंगलवार को हो तो माता घोड़े पर सवार होकर आती है। यदि बुधवार से नवरात्रि शुरू होती है तो मां नाव को अपनी सवारी बनाती हैं। गुरुवार अथवा शुक्रवार को नवरात्रि शुरू होने से माता डोली पर आती हैं। 


साल 2020 में दुर्गा पूजा और नवरात्रि की शुरुआत शनिवार से होने वाली है। 


इस द्रष्टि से इस बार मां दुर्गा घोड़े पर सवार होकर आ रही हैं।


मां दुर्गा का घोड़े पर आना कुछ अच्छे संकेत नहीं दे रहा है। इससे पड़ोसी देशों के साथ विवाद व युद्ध के हालात बन सकते हैं। राजनीति तथा सत्ता में उथल-पुथल की आशंका है। इसके साथ ही रोग और दुर्घटनाएं संभव हैं । मां की विदाई भी भैंसे पर हो रही है और यह सामाजिक और राजनीतिक नजरिए से शुभ नहीं है। ऐसे में नवरात्र पर मां दुर्गा की आराधना कष्टों से मुक्ति दिलाएगी।



मंगलवार, 1 सितंबर 2020

पितृपक्ष में भूलकर भी ना करें यह गलतियां

पितृपक्ष में भूलकर भी ना करें ये गलतियां, पितरों की आत्मा हो जाती है नाराज


 


1 पितृपक्ष में सनातन धर्म के लोग अपने पितरों की पूजा-अर्चना और पिंडदान करते हैं। इस बार पितृपक्ष 2 सितंबर से शुरू हो रहे हैं और 17 सितंबर तक चलेंगे। इस दौरान पितरों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध कर्म और तर्पण किए जाते हैं। इसलिए इस पूजा को विधि-पूर्वक किया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पिंडदान की पूजा में किसी भी तरह की लापरवाही से पितर नाराज हो जाते हैं। इसलिए इसको करते समय कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक माना गया है। धयान रखे कि पितृपक्ष (Pitru Paksha) के दौरान आपको कौन सी चीजें ध्यान में रखनी चाहिए, जिससे आपकी पूजा बिना किसी गलती के पूरी हो सके…


 


2. ऐसे बर्तनों का ना करें प्रयोग


 


श्राद्ध कर्म के दौरान भूलकर भी लोहे के बर्तनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। मान्यता के अनुसार, पितृपक्ष में लोहे के बर्तन के प्रयोग करने से परिवार पर अशुभ प्रभाव पड़ता है। इसलिए पितृपक्ष में लोहे के अलावा तांबा, पीतल या अन्य धातु से बनें बर्तनों का ही इस्तेमाल करना चाहिए।


 


 


3. न करें इनका प्रयोग


 


पितृपक्ष (Pitru Paksha) में पितरों के लिए श्राद्ध कर्म कर रहे हैं तो उस दिन शरीर पर तेल का प्रयोग नहीं करना चाहिए और ना ही पान खाना चाहिए। इसके साथ ही दूसरे के घर का खाना पितृपक्ष में वर्जित बताया है और इत्र का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए।


 


 


4 न करें शुभ कार्य शुरू


 


पितृपक्ष (Pitru Paksha) में पूर्वजों को याद किया जाता है और उनकी आत्मा की शुद्धि के लिए पूजा की जाती है। इसलिए इस दौरान परिवार में एकतरह से शोकाकुल माहौल रहता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस दौरान कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए, साथ ही नई वस्तु की खरीदारी करना भी अशुभ माना गया है।


 


5 नहीं करना चाहिए इनका अपमान


 


पितृपक्ष के दौरान भिखारी या फिर किसी अन्य व्यक्ति को बिना भोजन कराएं नहीं जाने देना चाहिए। इसके साथ ही पशु-पक्षी जैसे कुत्ते, बिल्ली, कौवा आदि का अपमान नहीं करना चाहिए। मान्यता के अनुसरा, पूर्वज इस दौरान किसी भी रूप में आपके घर पधार सकते हैं।


 


6 पुरुष ध्यान रखें यह चीज


 


पितृपक्ष में जो पुरुष अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर्म करते हैं, उन्हें दाढ़ी और बाल नहीं कटवाना चाहिए। शास्त्रों में बताया गया है कि पितृपक्ष के दौरान दाढ़ी और बाल कटवाने से धन की हानि होती है क्योंकि यह शोक का समय माना जाता है।


 


7 पितरों के लिए ऐसा भोजन उत्तम


 


पितृपक्ष में घर पर बनाए गए सात्विक भोजन से ही पितरों को भोग लगाना उत्तम माना गया है। अगर आपको अपने पूर्वज की मृत्यु तिथि याद है तो उस दिन पिंडदान भी करना चाहिए। अन्यथा पितृपक्ष के आखिरी दिन भी पिंडदान अथवा तर्पण विधि से पूजा कर सकते हैं।


आज है अनंत चतुर्दशी : जानिए इसका महत्व

*अनन्त चतुर्दशी* 


 


*भाद्रपद, शुक्लपक्ष, मंगलवार,1 सितम्बर 2020: 14 गांठों वाला अनन्त क्यों जरुरी हैं पहनना "अनन्त चतुर्दशी" की पूजा विधि और शुभ मुहूर्त यहाँ जानिए*


 


 अनन्त चतुर्दशी 1 सितंबर 2020 दिन मंगलवार को हैं। इस दिन भगवान हरि के अनन्त रुप की आराधना की जाती हैं। इस दिन 14 गांठें बनाकर एक अनन्त धागा बनाया जाता हैं जिसकी श्रद्धा भाव विश्वास युक्त होकर पूजा करने के बाद उसे अपने बाजू पर बांध लिया जाता हैं। अनन्त चतुर्दशी के दिन ही कई जगह गणेश विसर्जन भी किया जाता हैं।


 


14 गांठों वाला अनन्त क्यों जरुरी हैं पहनना, अनन्त चतुर्दशी की पूजा विधि और शुभ मुहूर्त यहां जानिए


 


अनन्त चतुर्दशी 2020, 1 सितंबर दिन मंगलवार को हैं। इस दिन भगवान हरि के अनन्त रुप की आराधना की जाती हैं।


 


 भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी तिथि को अनन्त चतुर्दशी व्रत रखा जाता हैं। जो इस बार 1 सितंबर दिन मंगलवार को हैं। इस दिन भगवान हरि के अनन्त रुप की बिशेष प्रार्थना की जाती हैं। इस दिन 14 गांठें बनाकर एक अनन्त धागा बनाया जाता हैं जिसकी पूजा करने के बाद उसे अपने बाजू पर बांध लिया जाता हैं। अनंत चतुर्दशी अनन्त धागा क्या हैं? शास्त्रों में अनन्त चतुदर्शी व्रत रखने के साथ ही भगवान विष्णु के अनन्त स्वरुप की पूजा का विधान हैं। अनन्त चतुर्दशी की पूजा में अनन्त सूत्र का बड़ा महत्व हैं। यह अनन्त सूत्र सूत के धागे को हल्दी में भिगोकर 14 गाँठ लगाकर तैयार किया जाता हैं। यह एक रक्षा सूत्र हैं। इसे पूजा के बाद हाथ या गले में धारण किया जाता हैं। हर गाठ में *श्री मन्नारायण ॐ नमो भगवते वासुदेवाय* विभिन्न नामों से पूजा की जाती हैं। ये 14 गांठें हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों *तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल, भू, भुवः, स्वः, जन, तप, सत्य, मह,* की रचना की प्रतीक हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता हैं कि इस व्रत को यदि 14 वर्षों तक किया जाए, तो व्रती को विष्णु लोक की प्राप्ति होती हैं।


 


पूजा विधि- इस दिन सुबह सुबह स्नान कर साफ सुथरे कपडे़ पहन लें उसके बाद भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए व्रत का संकल्प लें और पूजा स्थल पर कलश की स्थापना करें। कलश पर कुश से बने भगवान अनन्त की स्थापना करें अब एक डोरी या धागे में कुमकुम, केसर और हल्दी से रंगकर अनन्त सूत्र बना लें जिसमें 14 गांठें लगाएँ इस सूत्र को भगवान विष्णु को अर्पित करें। अब भगवान विष्णु और अनन्त सूत्र की षोडशोपचार अथवा सुविधानुसार विधि विधान से पूजा शुरू करें और इस मंत्र का जाप करें *अनन्त संसार महासुमद्रे मग्रं समभ्युद्धर वासुदेव। अनंतरूपे विनियोजयस्व ह्रानंतसूत्राय नमो नमस्ते।।* पूजन के बाद इस अनन्त रुपी अनन्ता सूत्र को अपनी बाजू पर बांध लें। इस बात का ध्यान स्मरण रहें कि अनन्त सूत्र पुरुष अपने दाएं हाथ पर और महिलाएं बाएं हाथ पर बांधे। ऐसा करने के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराएं और सपरिवार प्रसाद ग्रहण करें।।


 


*अनन्त चतुदर्शी की अनन्त शुभकामनाएँ*🙏💐


रविवार, 30 अगस्त 2020

कोरोना पीड़ित रामभद्राचार्य की सेहत बिगड़ी

लखनऊ । कोरोना संक्रमण के कारण पीजीआई में भर्ती  तुलसी पीठ के संस्थापक व राम कथा वाचक स्वामी रामभद्राचार्य की सेहत बिगड़ने पर आईसीयू में शिफ्ट किया गया है। उन्हें सांस लेने में तकलीफ हो रही थी। कोरोना पॉजिटिव आने के बाद 22 अगस्त को स्वामी जी पीजीआई को राजधानी कोविड अस्पताल में भर्ती हुए थे। सेहत में सुधार के बाद आइसोलेशन वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया था। शुक्रवार को अचानक तबीयत बिगड़ने पर दोबारा आईसीयू में शिफ्ट किया गया।  


बुधवार, 19 अगस्त 2020

165 साल बाद ऐसा संयोग : एक माह बाद आएंगे नवरात्र

इस बार 165 साल बाद ऐसा संयोग आ रहा है जब पितृपक्ष के 1 महीने बाद नवरात्र आएंगे। 


हर साल पितृ पक्ष के समापन के अगले दिन से नवरात्र का आरंभ हो जाता है और घट स्‍थापना के साथ 9 दिनों तक नवरात्र की पूजा होती है। यानी पितृ अमावस्‍या के अगले दिन से प्रतिपदा के साथ शारदीय नवरात्र का आरंभ हो जाता है जो कि इस साल नहीं होगा। इस बार श्राद्ध पक्ष समाप्‍त होते ही अधिकमास लग जाएगा। अधिकमास लगने से नवरात्र और पितृपक्ष के बीच एक महीने का अंतर आ जाएगा। आश्विन मास में मलमास लगना और एक महीने के अंतर पर दुर्गा पूजा आरंभ होना ऐसा संयोग करीब 165 साल बाद होने जा रहा है।


लीप वर्ष होने के कारण ऐसा हो रहा है। इसलिए इस बार चातुर्मास जो हमेशा चार महीने का होता है, इस बार पांच महीने का होगा। ज्योतिष की मानें तो 160 साल बाद लीप ईयर और अधिकमास दोनों ही एक साल में हो रहे हैं। चातुर्मास लगने से विवाह, मुंडन, कर्ण छेदन जैसे मांगलिक कार्य नहीं होंगे। इस काल में पूजन पाठ, व्रत उपवास और साधना का विशेष महत्व होता है। इस दौरान देव सो जाते हैं। देवउठनी एकादशी के बाद ही देव जागृत होते हैं।


इस साल 17 सितंबर 2020 को श्राद्ध खत्म होंगे। इसके अगले दिन अधिकमास शुरू हो जाएगा, जो 16 अक्टूबर तक चलेगा। इसके बाद 17 अक्टूबर से नवरात्रि व्रत रखे जाएंगे। इसके बाद 25 नवंबर को देवउठनी एकादशी होगी। जिसके साथ ही चातुर्मास समाप्त होंगे। इसके बाद ही शुभ कार्य जैसे विवाह, मुंडन आदि शुरू होंगे।


पंचांग के अनुसार इस साल आश्विन माह का अधिकमास होगा। यानी दो आश्विन मास होंगे। आश्विन मास में श्राद्ध और नवरात्रि, दशहरा जैसे त्योहार होते हैं। अधिकमास लगने के कारण इस बार दशहरा 26 अक्टूबर को दीपावली भी काफी बाद में 14 नवंबर को मनाई जाएगी।


क्‍या होता है अधिक मास


एक सूर्य वर्ष 365 दिन और करीब 6 घंटे का होता है, जबकि एक चंद्र वर्ष 354 दिनों का माना जाता है। दोनों वर्षों के बीच लगभग 11 दिनों का अंतर होता है। ये अंतर हर तीन वर्ष में लगभग एक माह के बराबर हो जाता है। इसी अंतर को दूर करने के लिए हर तीन साल में एक चंद्र मास अतिरिक्त आता है, जिसे अतिरिक्त होने की वजह से अधिकमास का नाम दिया गया है।


अधिकमास को कुछ स्‍थानों पर मलमास भी कहते हैं। दरअसल इसकी वजह यह है कि इस पूरे महीने में शुभ कार्य वर्जित होते हैं। इस पूरे माह में सूर्य संक्रांति न होने के कारण यह महीना मलिन मान लिया जाता है। इस कारण लोग इसे मलमास भी कहते हैं। मलमास में विवाह, मुंडन, गृहप्रवेश जैसे कोई भी शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं।


पौराणिक मान्‍यताओं में बताया गया है कि मलिनमास होने के कारण कोई भी देवता इस माह में अपनी पूजा नहीं करवाना चाहते थे और कोई भी इस माह के देवता नहीं बनना चाहते थे, तब मलमास ने स्‍वयं श्रीहरि से उन्‍हें स्‍वीकार करने का निवेदन किया। तब श्रीहर‍ि ने इस महीने को अपना नाम दिया पुरुषोत्‍तम। तब से इस महीने को पुरुषोत्‍तम मास भी कहा जाता है। इस महीने में भागवत कथा सुनने और प्रवचन का विशेष महत्‍व माना गया है। साथ ही दान पुण्‍य करने से आपके लिए मोक्ष के द्वार खुलते हैं।


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