शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

अद्भुत है सोलह कलाओं पूर्ण श्रीकृष्ण का जीवन


 १६ कला सम्पूर्ण श्री कृष्ण

क्या समझ पाए हैं हम कृष्ण लीला का अर्थ?जिनका जन्म ही विकट  परिस्थियों में होने के बावजूद हरेक परिस्थिति को सहज रूप से लेना और उससे बाहर निकलना ही उनकी लीला हैं।राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और कृष्ण अलौकिक सौंदर्य,प्रेम,आनंद,मैत्री के मार्ग दर्शक हैं।राधा से प्रेम,रुक्मणि हरण,सुदामा की मैत्री में सादगी माता पिता की और समर्पण भाव, निर्भव हो दुश्मनों के प्रति भी उदारता, सिर्फ उनके कर्म का फल देने की भावना ये सब एक ही व्यक्ति में होना ही उन्हें भगवान बनाता हैं,सब से ज्यादा उनका भाव पांडवो और खास अर्जुन की और दिखता हैं,शायद आज जिन्हे मोटिवेशनल स्पीकर बोलते हैं उनमें श्री कृष्ण पहले और श्रेष्ठ हैं।

”तज धर्म सारे एक मेरी ही शरण को प्राप्त हो,

मैं मुक्त पापों से करूंगा तू न चिंता व्याप्त हो।”

यही है गीता के १८ अध्याय के ६६ श्लोक का अर्थ।भक्ति रस में डूब उनकी ही शरण में जाने के बाद कोई चिंता नहीं करनी हैं बस श्रद्धा से उनकी शरण को स्वीकार करना हैं जैसे अर्जुन ने बहुत ही समझने के बाद किया और विजयी भी हुआ।

कृष्ण पर व्रजवासियों के प्रेम और श्रद्धा भी अप्रतिम हैं,

जो सुख ब्रह्मादिक नहीं पायो,

सो गोकुल की गलिन बहायो।

जगत के सर्जन करता श्री ब्रह्मा जी ने स्वयं ने श्रीमद भागवत महा पुराण में कहा हैं,

”अहो अतिधन्या ब्रज गौरमण्य:

स्तन्यामृत पीत मतिव ते मुदा।

यासां विलो वत्सरत्मजान्मना,

यातृप्तयेsधापि ये अsद्यापी न चालमध्वरा।

इनमें  व्रज की गायों तथा स्त्रियों  को अति धन्य बताया है जिनको तृप्त करने के लिए यज्ञ भी अभी तक समर्थ नहीं थे वैसे गायों के बछड़ों और पुत्र स्वरूप धारण कर उनके दूध रूपी अमृत प्रेमपूर्वक व हर्ष से पिया।

राधा किशन के प्रेम की तो बलिहारी हैं,राधा उनके प्रेम में दीवानी थी,कृष्ण मिलन को जाने के समय अपने श्रृंगार को भी भूल पगलाई सी दौड़ी चली जाती थी, न सुध थी खाने पीने की न ही श्रृंगार की,प्रेम में जो एक खिंचाव होता हैं उसका तद्रुश्य उदाहरण राधा किशन का प्रेम हैं।

परमानंद स्वरूप पूर्ण सनातन विष्णु का दिव्य, साकार स्वरूप ऐसे श्री कृष्ण  ने व्रजवासी,व्रज की गायें ,नदियां,परबत  और वृक्ष को प्रेम रस से अभिषिक्त किया हैं।भक्त सूरदासजी कहते हैं,व्रजवासी पटतर कोई नाही,

धन्य नंद, धनि जननी यशोदा,

धन्य वृंदावन के तरु जहां विचरत त्रिभुवन के राची।

जब प्रभु द्वारिका गए तब भी बिरहा में यहीं थी भावना,

बिलख रही हैं मात जशोदा, नंदजी दुःख में खोए,

अब तो सोच अहे ओ निर्मोही व्रज का कण कण रोए।किशन जी को भी व्रजवासी अतिप्रिय होने के बावजूद उन्होंने द्वारिका जाने का निर्णय किया और रणछोड़ कहाए।जब उद्धव जी ने आग्रह किया तब उन्हों ने कहा सखा," उधो मोहि व्रज बिसरत  नाही।”

गोपियां भी उनकी चरणरज पाने की चाह में पीछे पीछे दौड़ती हैं।

मीरा,सूरदास,रसखान आदि भक्तों ने अपनी अपनी भक्ति द्वारा उनके प्रति अपनी भावनाओं को प्रतिबिंबित किया हैं।ये सोलह कला संपन्न महा विभूति को शत शत नमन।


जयश्री बिरमी

निवृत्त शिक्षिका 

अहमदाबाद

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