सोमवार, 24 अगस्त 2020

नहीं रहे अशोक साहिल, अदब की बुलंदियों पर खो गया किनारा


मुजफ्फरनगर । मुज़फ्फरनगर की मिट्टी की खुशबू को शीरीं उर्दू के गुलदान में अपनी ग़ज़लों और नज्मों से गुलजार करके हिंदुस्तान की मुहब्बत नवाजी को अदब के फलक पर सुर्खरू करने वाले अशोक साहिल का जाना हर शायरी शौकीन के लिए सदमे से कम नहीं है। गुर्दे के संक्रमण से मेरठ में उनका निधन हो गया। 


दोपहर बाद शुक्रताल स्थित श्मशान घाट पर अशोक साहिल का अंतिम संस्कार किया गया। मुखाग्नि उनके दत्तक पुत्र योगेश शर्मा ने दी। इनके अलावा परिवार में तीन पुत्रियां अकांक्षा, शिवानी व प्रियम हैं। जिला अस्पताल में हेड सिस्टर रहीं पत्नी शोभा भगत का करीब तीन साल पहले निधन हो चुका है।बंटवारे के बाद अशोक साहिल का परिवार बहावलपुर पाकिस्तान से आकर मुजफ्फरनगर में बसा था। लिखने-पढ़ने से बेहद लगाव रखने वाले साहिल का शुरुआती जीवन बहुत संघर्षों में गुजरा। इन्होंने शहर और आसपास के इलाके में कपड़े का काम किया। धीरे-धीरे अपने अशआरों की बदौलत पहचान बनाने वाले अशोक साहिल ने हिंदी-उर्दू मंचों पर आला मुकाम हासिल किया।


६४ साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाले मकबूल शायर अशोक साहिल पत्नी की मौत के बाद काफी टूट गए थे। मशहूर शायर राहत इंदौरी से उनके रूहानी रिश्ते थे। राहत इंदौरी जब भी मुजफ्फरनगर आते अशोक साहिल के घर पर जरूर ठहरते। एक पखवाडे पहले राहत इंदौरी के इंतकाल की खबर पाकर अशोक बेहद गमजदा हो गए थे। फिलहाल अशोक साहिल सदर बाजार में स्पंदन क्लीनिक में शायरी पसंद वरिष्ठ हृदय रोग विशेषज्ञ आरबी सिंह के साथ रहते थे। इंसानियत और फकीरी अशोक साहिल की नस-नस में बसती और दिलो-ओ-जेहन में शायरी। सियासत या चापलूसी से हमेशा दूर रही उनकी कलम ने हर तबके की आवाज बुलंद कर इंसानियत का पैगाम दिया। उनका यह शेर बहुत मशहूर है कि...


परिंदा हो चरिंदा हो कि इंसा


मुहब्बत ही की बारिश चाहता है


अना मजबूर कर देती है वरना


आम आदमी की हिमायत और उसके दर्द की बयानी करते हुए अशोक साहिल ने लिखा कि.... सिर्फ लफ्जों की सजावट नहीं करता साहिल उसके हर शेर में पैगाम छिपा होता है इस दुनिया में कौन समझता है किसी और का दुख रेल का वजन तो पटरी को पता होता है। 


एक और शेर में वह मजलूम और मजबूर शख्स को जिंदगी के आयाम सिखाते नजर आते हैं। उन्होंने गरीब का शेर लिखा कि....


तुम्हें पांव में चप्पल न होने का मलाल है मेरे भाई


उन्हें देख जो पांव से भी महरूम होते हैं।


इंसानियत के पैरोकार रहे अशोक साहिल ने न खुद को और नहीं अपनी कलम को मजहब की बंदिशों में बंधने दिया। उनका यह ऐलानिया शेर इस बात का जिंदा दस्तावेज है, जिसमें उन्होंने लिखा कि...


मैं तुम्हें अपने उसूलों की कसम देता हूं


मुझको मजहब के ताराजू में न तौला जाए


मैंने इंसान ही रहने की कसम खाई है


मुझको हिंदु या मुसलमान न समझा जाए।


श्री श्री रविशंकर जी को पंसद आई नज्म, एलबम में संजोया


करीब आठ साल पहले अध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर जी को अशोक साहिल की नज्म इतनी पसंद आई कि उन्होंने पत्र लिखकर उस गजल को एलबम में शामिल करने की इच्छा जताई। इस पर अशोक साहिल ने सहर्ष स्वीकृति देते हुए इसे अपने और जनपद के लिए गौरव की बात बताया था। वह नज्म इस तरह थी कि...


न सबूत है न दलील है


मेरे साथ रब्बे जलील है


तेरा नाम है कितना मुख्तसर


तेरा जिक्र कितना तवील है


तेरे फैसलों से हूं मुत्मईन


न मुतालबा न अपील है


तेरी रहमतों में कमी नहीं


मेरी एहतियात में ढील है।


उनका ये शेर उर्दू अदब की मिल्कियत बन गया


बुलंदियों पे पहुंचना कोई कमाल नहीं 


बुलंदियों पे ठहरना कमाल होता है।


 


उनका ये कलाम देखिए - 


मेरी तरह ज़रा भी तमाशा किए बग़ैर। 


रो कर दिखाओ आँख को गीला किए बग़ैर। 


ग़ैरत ने हसरतो का गरेबाँ पकड़ लिया 


हम लौट आए अर्ज़-ए-तमन्ना किए बग़ैर। 


चेहरा हज़ार बार बदल लीजिए मगर 


माज़ी तो छोड़ता नहीं पीछा किए बग़ैर। 


कुछ दोस्तों के दिल पे तो छुरियाँ सी चल गईं 


की उस ने मुझ से बात जो पर्दा किए बग़ैर।


 


ये कहने का हौसला साहिल ही कर सकते हैं - 


अब इस से पहले कि दुनिया से मैं गुज़र जाऊँ 


मैं चाहता हूँ कोई नेक काम कर जाऊँ। 


ख़ुदा करे मिरे किरदार को नज़र न लगे 


किसी सज़ा से नहीं मैं ख़ता से डर जाऊँ। 


ज़रूरतें मेरी ग़ैरत पे तंज़ करती हैं 


मिरे ज़मीर तुझे मार दूँ कि मर जाऊँ। 


बहुत ग़ुरूर है बच्चों को मेरी हिम्मत पर 


मैं सर झुकाए हुए कैसे आज घर जाऊँ। 


मिरे अज़ीज़ जहाँ मुझ से मिल न सकते हों 


तो क्यूँ न ऐसी बुलंदी से ख़ुद उतर जाऊँ।


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