हिन्दू पंचांग के अनुसार वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को ‘अक्षय तृतीया’ या आखा तीज कहा जाता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह दिन केवल एक पर्व ही नहीं बल्कि एक बड़े त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। अक्षय तृतीया के रंग विभिन्न रूप में हिन्दुओं के बीच नजर आते हैं।
इस महान पर्व पर हिंदू धर्म में किसी भी प्रकार के शुभ कार्य, दान एवं उपवास रखने की मान्यता शामिल है। यह दिन ‘सर्वसिद्धि मुहूर्त दिन’ के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन कोई भी शुभ कार्य करने से पहले ना ही पंचांग देखने की आवश्यकता होती है और ना ही किसी पंडित से सलाह लेने की जरूरत होती है।
यह दिन अपने आप में ही सबसे शुभ माना जाता है, इसलिए इस दिन किया हुआ कोई भी कार्य सफल माना गया है। लोग खासतौर पर अपने जीवन की कोई नई शुरुआत या खुशी का पल इस दिन पर आयोजित कराते हैं। इस दिन बड़ी संख्या में विवाह करने की रीति भी शामिल है।
माना गया है कि इस दिन व्रत रखने से भक्तों को संपूर्ण फल मिलता है। सभी मुरादें पूर्ण होती है। रीति अनुसार यदि व्रत एवं दान-पुण्य करके हवन-यज्ञ कराया जाए, तो सभी मनोकामनाएं सम्पूर्ण होती हैं। केवल इच्छाएं ही नहीं, इस दिन भगवान लोगों की गलतियों को भी स्वीकार कर लेते हैं।
यदि जिंदगी में कभी कोई भूल-चूक हो गई हो तो इस दिन भगवान से दिल से माफी मांगकर अपने अवगुणों को खत्म करने की मांग की जाती है। भगवान के चरणों में पिछली सारी गलतियों की क्षमा मांग कर अपने अवगुण अर्पित किए जाते हैं, और उसके स्थान पर भगवान से सदगुणों की प्राप्ति होती है।
अक्षय तृतीया के दिन के साथ इस पर्व का अर्थ भी बेहद खास है। ‘अक्षय’ से तात्पर्य है - ‘जिसका कभी क्षय न हो’ अर्थात जो कभी नष्ट नहीं होता या जिसका कभी अन्त नहीं किया जा सकता। इसीलिए इस दिन को हिन्दू मान्यताओं में सौभाग्य और सफलता का दिन माना गया है।
अक्षय तृतीया के बेहद खास होने के पीछे कई सारे धार्मिक पहलू छिपे हैं। हिन्दू पुराण के अनुसार इसी दिन से हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध चार युगों में से तीसरे युग ‘त्रेता युग’ का आरंभ हुआ था। भगवान विष्णु के 24 अवतार में से दो अवतार नर व नारायण का अवतार भी इसी दिन हुआ था।
इसके अलावा भगवान विष्णु के ही एक और अवतार (छठे अवतार) भगवान परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ था। उनका जन्म महर्षि जमदग्नि और रेणुका के घर हुआ था। बचपन में भगवान परशुराम का नाम ‘रामभद्र’ या केवल ‘राम’ था, लेकिन भगवान शिव से उनका प्रसिद्ध शस्त्र ‘परशु’ प्राप्त करने के बाद से उन्हें परशुराम के नाम से ही जाना गया।
अक्षय तृतीया कथा
अक्षय तृतीया से जुड़ी एक कथा काफी प्रचलित है जो भगवान परशुराम के जन्म की ही है। प्राचीन काल में कन्नौज में गाधि नाम के एक राजा राज्य करते थे जिनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त सुंदर कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषी के साथ कर दिया।
सत्यवती के विवाह के पश्चाकत् वहां भृगु ऋषि ने आकर अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर मांगने के लिए कहा। ऋषि को प्रसन्न देखकर सत्यवती ने सोचा कि वह अपने पिता की इकलौती संतान है, साथ ही कन्या भी है, यदि उसका कोई भाई होता तो उसके पिता के बाद राज्य की जिम्मेदारी उसे मिल जाती।
यह सोच सत्यवती ने ऋषि से अपनी माता के लिए एक पुत्र की मांग की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र दे दिए और कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो, तब तुम्हारी मां पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करे र तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना।
फिर मेरे द्वारा दिए गए इन चरुओं का सेवन कर लेना। इधर जब सत्यवती की मां ने देखा कि भृगु ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है, तो उसके मन में कपट उत्पन्न हुआ। उसने सोचा कि यदि वह अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दे, तो जो वर उसकी पुत्री को हासिल होना है वह उसे हो जाएगा।
लेकिन वह असलियत से अंजान थी। ऋषि को सत्यवती की मां की इस योजना का आभास हो गया था और उन्होंने सत्यवती को असलियत बता दी। परंतु होनी को कौन टाल सकता था। चरु बदले जाने पर परिणामस्वरूप सत्यवती की संतान ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और उसके मां की संतान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी।
यह जान सत्यवती उदास हो गई और उसने भृगु से एक और विनती की। ऋषि ने उसे आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करेगा, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। कुछ समय बाद सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ, जिनका विवाह बड़े होने पर रेणुका से हुआ।
रेणुका से उनके पांच पुत्र हुए जिनके नाम थे - रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वातनस और परशुराम। इन्हीं पांच पुत्रों में से सबसे आखिरी पुत्र परशुराम ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रीय जैसा आचरण करते थे।
यह तो अक्षय तृतीय के व्रत की कथा थी। लेकिन व्रत के अलावा यह दिन दान-पुण्य के लिए भी महान माना जाता है। जिसमें से सबसे बड़ा दान है कन्या का। प्राचीन काल से ही भारत में इस दिन कन्या दान को काफी अहम माना जाता था।
इस दिन मुहूर्त को खास देखते हुए लोग अपनी कन्या का विवाह करते थे। फिर चाहे उसकी उम्र 24 वर्ष की हो, 14 वर्ष हो या महज 4 वर्ष हो। खासतौर पर भारत के कुछ कस्बों और गावों में इस दिन बाल विवाह करने का ही प्रचलन शामिल था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें