भारत में हिंदी पत्रकारिता के पहले अखबार उंदत मार्तण्ड के छपने से लेकर आजतक के छपने वाले हिंदी अख़बारों का विश्लेष्ण- अशोक बालियान,चेयरमैन, पीजेंट वेलफेयर एसोसिएशन
भारत में 30 मई 1826 को पहले हिंदी पत्रकारिता का अखबार उंदत मार्तण्ड कलकत्ता से आज ही के दिन प्रकाशित हुआ था इसलिए हिंदी पत्रकारिता दिवस प्रतिवर्ष 30 मई को मनाया जाता है। हिंदी की इस लंबी प्रतीक्षा का एक बड़ा कारण पराधीन देश की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता में शासकों की भाषा अंग्रेज़ी के बाद बंगला और उर्दू का प्रभुत्व था।
उदंत मार्तण्ड ने अपने छोटे से प्रकाशन काल में हमेशा ही समाज के विरोधाभाषों पर तीखे हमले किये और गंभीर सवाल उठाये थे, लेकिन इस समय कुछ सीमा तक पत्रकारिता अब मिशन नहीं, यह एक प्रोफेशन और बिजनेस बन गया है।
इस अखबार के बंद होने के कुछ समय बाद सन 1829 में राजाराम मोहन राय, द्वारिकानाथ ठाकुर और नीलरतन हाल्दार ने मिलकर ‘बंगदूत’ निकाला जो हिंदी के अलावा बंगला व पर्शियन आदि में भी छपता था।
सन 1857 के दौर में श्याम सुंदर सेन द्वारा प्रकाशित व संपादित ‘समाचार सुधावर्षण’ ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक जबरदस्त मोर्चा ‘समाचार सुधावर्षण’ में भी खोल दिया था, उन्होंने न सिर्फ़ उनकी नाराज़गी मोल लेकर निर्भीकतापूर्वक संग्राम की उनके लिए ख़ासी असुविधाजनक सच्ची ख़बरें छापीं, बल्कि विभिन्न कारस्तानियों को लेकर उनके वायसराय तक को लताड़ते रहे थे।
दुनिया में पत्रकारिता का इतिहास कई स्तरों पर विभाजित है। कुछ इतिहासकार इसे रोम से मानते है, तो वहीं कुछ इसको 15वीं शताब्दी तक जर्मनी के गुटनबर्ग की प्रिंटिंग मशीन की शुरुआत से मानते है।
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। जब न्यायपालिका को छोड़कर लोकतंत्र के बाकी स्तंभ भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की समस्याओं से जूझ रहे हैं, तो ऐसे समय पत्रकारिता की सामाजिक जिम्मेदारी कहीं अधिक बढ़ जाती है। एक ईमानदार मीडिया लोकतंत्र की सफलता के लिए बहुत जरूरी है।
मनुष्य और मनुष्यता विरोधी सत्ताओं के (चाहे वे धार्मिक रही हों, राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक) प्रतिरोध की लंबी विरासत की वारिस हिंदी पत्रकारिता की, स्वयं को मुख्य कहने वाली धारा की, समकालीन गिरते स्तर की बात अब किसी से भी छिपी नहीं है। यह भी सच है कि अपनी जिंदगी पत्रकारिता को समर्पित करने वाले और खासकर छोटे शहरों में काम करने वाले पत्रकारों को वेतन कितना मिलता है?
संचार क्रांति के दिए हथियारों से लैस होकर व्यर्थ की जगर-मगर में खोई हिंदी पत्रकारिता समाचार सुधावर्षण की ऐसी विलोम बन गई है कि कोई उम्मीद भी नहीं करता कि वह समाचार सुधावर्षण द्वारा तत्कालीन परिस्थितियों में निरंकुश गोरी सत्ता के ख़िलाफ़ दिखाए गए प्रतिरोध के जीवट से कोई सबक लेगी। इस पत्रकारिता को तो यह याद करना भी गंवारा नहीं कि वह प्रतिरोध की कितनी शानदार परंपरा की वारिस है!
इस समय पत्रकारिता में ई-कम्यूनिकेशन का दौर शुरू हो चुका है। अब वेबसाइट, ई-मेल, यूट्यूब, सोशल साइट, ट्विपटर, ब्लॉग जैसे ई-कम्युनिकेशन पर चर्चा अधिक होती है। नई पीढ़ी इन चीजों को तेजी से अपना रही है और समय के साथ इसका महत्व बढ़ता जा रहा है। अखबारों में संपादकों की पोस्ट खत्म हो गई है, अब मैनेजर और प्रोपराइटर का जमाना है।
भारतीय प्रेस के पितामह कहे जाने वाले पं. जुगल किशोर शुक्ल व अंग्रेजी अख़बार के सम्पादक जेम्स अगस्टस हिकी दुनिया भर में पत्रकारों के बीच प्रेरणास्रोत हैं। इसके साथ ही आज भी दैनिक हिंदी अख़बार भाषा और साहित्य की उन्नति में भी बहुत योगदान दे रहें है। लेकिन आज पत्रकारिता में विश्लेषण करने की क्षमता कम होती जा रही है। इस नए दौर में साथ चलने के लिए पत्रकार और पाठक दोनों को बदलना होगा।
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