शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

खेल जो हमने खेले का विमोचन

मुजफ्फरनगर। साहित्यकार डा. अमित धर्मसिंह की गद्य पुस्तक ‘खेल जो हमने खेले ‘ का लोकार्पण 25 साल से धरने पर बैठे मास्टर विजय सिंह के सत्याग्रह आश्रम पर संपन्न हुआ। सहज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक लोक खेलों का विवरण उनके उपकरणों और खेले जाने की विधि के साथ प्रस्तुत करती है। साथ ही यह खेलों की वैचारिकी को समाज शास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सामने लाती है। मुख्य वक्ता रोहित कौशिक ने कहा कि साहित्य समाज अमित धर्मसिंह के लेखन से भलीभांति परिचित है। उनकी कलम गांव और उसकी पृष्ठभूमि से जुड़ी रही है। गत वर्ष उनकी पुस्तक ‘ हमारे गांव में हमारा क्या है!’ जो कि उनकी काव्यमय आत्मकथा है खासा चर्चित रही। इस पुस्तक ने साहित्य समाज को ग्रामीण परिवेश के उन दग्ध अनुभवों से रूबरू करवाया जिन से नगर और महानगर का साहित्य समाज अक्सर अनभिज्ञ रहता है। अमित धर्मसिंह की यह पुस्तक खेल जो हमने खेले भी ग्रामीण जीवन की पृष्ठिभूमि से हमें जोड़ती है। पुस्तक गांव में खेले जाने वाले खेल और उनमें व्याप्त आर्थिक और सामाजिक विसंगति को पूरी तरह उजागर करती है। कार्यक्रम के अध्यक्ष मास्टर विजय सिंह ने कहा कि जिन अधिकांश खेलों को आज का समाज लगभग भूल चुका है, उन्हें यह पुस्तक आंखों के सामने जीवंत कर देती है। वे बाल सखा जो अपनी जीविका को लेकर दुनियादारी में कहीं खोकर रह गए हैं उनकी सहज याद भी इस पुस्तक को पढ़कर हो आती है। खेलों का निश्चल स्वरूप जो अस्सी और नब्बे के दशक में दिखाई देता था वह आज दुर्लभ प्राय हो गया है लेकिन अमित धर्मसिंह की यह पुस्तक लोक खेलों के उसी स्वरूप को हमारे सामने लाती है। विशिष्ट वक्ता कमल त्यागी ने कहा कि असल में अमित धर्मसिंह की इस पुस्तक में बचपन की बहुत सी मासूम और दुरूह यादों को सहेजा गया है। पुस्तक को पढ़ते हुए हम बचपन से सहज ही जुड़ते चले जाते हैं। बचपन की स्मृतियों की एक फिल्म सी हमारे सामने चलने लगती है जो हमें न सिर्फ हमारे बचपन की याद दिलाती है बल्कि खेलों के स्वरूप में हो रहे परिवर्तनों के विषय में सोचने पर मजबूर भी करती है।

पुस्तक के प्रकाशक परमेंद्र सिंह ने कहा कि अमित धर्मसिंह की पुस्तक ʺखेल जो हमने खेलेʺ कुँवर रवीन्द्र के आवरण से सज्जित है। इस पुस्तक का एक भाग हमें बचपन की स्मृतियों के बीच ले जाता है तो दूसरा भाग खेल एवं उसके व्यवसायिक पक्ष की वास्तविकताओं से जुडी वैचारिकी से अवगत कराता है। लोक खेलों की जगह आज क्रिकेट या दूसरे बड़े खेल लेते जा रहे हैं, जिसकी वजह से बच्चों में जिस निर्द्वंद्व सामाजिकता का विकास होता था, वह आज कहीं बाधित नजर आता है। व्यवसायिकता दिनों दिन लोक खेलों को निगल रही है। पुस्तक इस और हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। इस कारण पुस्तक पूरी तरह पठनीय और संग्रहणीय बन पड़ी है। अंत में पुस्तक के लेखक अमित धर्मसिंह ने कहा कि पुस्तक की परिकल्पना और पांडुलिपि दो हजार सोलह में प्रभाष जोशी के क्रिकेट प्रेम को पढ़ते समय तैयार की गई थी। उसी दौरान मैंने महसूस किया था कि आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े बच्चों में अन्यों के बरक्स खेल, खेल के उपकरण और खेलों की विधि में पर्याप्त भेद होता है। यह भेद कई मामलों में अच्छा तो कई मामलों में बहुत ही असंगति भरा होता है। यही कारण है कि मैंने अपने और प्रभाष जोशी के खेल प्रेम में काफी अंतर पाया। इसी अंतर को प्रस्तुत पुस्तक में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। पुस्तक में जिन खेलों को दर्ज किया गया हैं, वे सभी खेल मैंने नब्बे के दशक में स्वयं खेले हैं। इन्हें लिखने की भावना और वैचारिकी में मुख्य ध्येय बचपन विशेष के खेलों को लिपिबद्ध करना और वैचारिक स्तर पर लोक खेल तथा क्रिकेट के भेद को सामने लाना रहा है। कार्यक्रम में सर्वश्री सुमित, अनित, नीशू, राजा, सुशील, नीरज, हरपाल, विकास, रवि, आदि उपस्थित रहे। संचालन समीर ने किया।

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